18/05/2025
माहे रमज़ान का इस्तकबाल किस तरह करें 20250212 234212 0000

माहे रमज़ान का इस्तकबाल किस तरह करें? How to welcome the month of Ramadan?

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How to welcome the month of Ramadan?
How to welcome the month of Ramadan?

मस्नून है कि 29 शाबानुल मुअज़्ज़म को बाद नमाज़े मगरिब चाँद देखा जाए, चाँद नज़र आ जाए तो दूसरे दिन से रोज़ा रखा जाए और अगर चाँद नज़र न आए तो दूसरे दिन फिर चाँद देखें। अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया ऐ महबूब ! लोग आपसे चाँद के बारे में पूछते हैं, आप फरमा दीजिए कि ऐ लोगों रमज़ान और हज के लिए वक़्त की अलामत है।” लिहाज़ा चाँद ही के ज़रिया हमें रमज़ान की शुरूआत और इख़्तिताम का इल्म हो सकता है तो हमें चाँद देख कर ही रोज़ा रखना चाहिए।

जैसा कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसल्लम ने रमज़ान का जिक्र करते हुए इरशाद फरमायाः चाँद देख कर रोज़ा रखो और चाँद देख कर इफ्तार करो, अगर चाँद नज़र न आए तो तीस दिन पूरे करो। (बुखारी शरीफ: 256)

चाँद नज़र आ जाए तो यह दुआ पढ़े तर्जुमा ‌: अल्लाहु अकबर, ऐ अल्लाह! हम पर यह चाँद अम्न व ईमान और सलामती व इस्लाम के साथ गुज़ार और उस चीज़ की तौफीक के साथ जो तुझ को पसंद हो और जिस पर तू राजी हो, मेरा रब और तेरा रब अल्लाह है।

रोज़ा कब फर्ज़ हुआ ?

रोज़ा एलाने नबुव्वत के पंद्रहवीं साल यानी दस शव्वाल 2 हि. में फर्ज़ हुआ।

अल्लाह तबारक व तआला का फरमान है तर्जुमा : तुम पर रोज़े फर्ज़ किए गए जैसे कि अगलों पर फर्ज़ हुए कि कहीं तुम्हें परहेज़गारी मिले। अल्लाह तआला ने इस आयत में बतौरे खास ज़िक्र फरमाया कि यह इबादत सिर्फ तुम ही पर फर्ज़ नहीं की जा रही है बल्कि तुम से पहले लोगों पर भी फर्ज़ हो चुकी है। (सूरः बकरा प.2, आयत 183)

चुनान्चे तफ्सीरे कबीर व तफ्सीरे अहमदी में है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से लेकर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम तक हर उम्मत पर फ़र्ज़ रहे। चुनान्चे हज़रत आदम अलैहिस्सलाम पर हर कमरी महीने की तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख के रोज़े और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की कौम पर आशूरा का रोज़ा फर्ज़ रहा। बाज़ रिवायतों में है कि सबसे पहले हज़रत नूह अलैहिस्सलाम ने रोज़ रखे।

सहरी और इफ्तारी सहर क्या है?

सहर का माना है “पोशीदगी” जादू और फैफड़े को इसी लिए सहर कहते हैं कि वह छुपे होते हैं, सुबह सादिक को भी सहर कहने की यही वजह है कि उस वक़्त की रोशनी रात की तारीकी में छुपी होती है।

वक़्ते सहर गीरिया व ज़ारी ।

अल्लाह तबारक वतआला ने कलामे मजीद में इर्शाद फरमाया “وَمُسْتَغْفِرِينَ بِالْأَسْحَارِ” और पिछले पहर माफी मांगने वाले। वाज़ मुफस्सिरीन ने फरमाया कि इस आयत से नमाज़े तहज्जुद पढ़ने वाले मुराद हैं और बाज़ के नज़दीक इससे वह लोग मुराद हैं जो सुबह उठ कर इस्तिगृफार पढ़ें चूंकि उस वक़्त दुनियावी शोर कम होता है, दिल को सुकून होता है, रहमते इलाही का नुज़ूल होता है। इसलिए उस वक्त तौबा व इस्तिगफार, दुआ वगैरा करना बेहतर है।

सहर के वक्त तौबा व अस्तगफार करना अल्लाह के बरगुजीदा बंदों की आदते करीमा रही है। रोजाना की मरूफियतों की वजह से हमें सहर के वक़्त उठने का मौका नहीं मिलता कि हम उस वक़्त बारगाहे समदियत में इस्तिगफार करें लेकिन माहे रमजानुल मुबारक में रोज़ाना सहरी के लिए हम बेदार होते हैं तो हमें चाहिए कि कम अज़ कम दो रकात नफिल अदा करके बारगाहे रब्बुल इज़्ज़त में सर बसजूद हो जाऐं और इस्तिगफ्फार करके सहर के वक़्त मगफिरत तलब करने वालों में शामिल हो जाएँ।

तौबा और दुआ की कबूलियत के अव्कात ।

साल भर में बाज औकात ऐसे होते हैं जब अल्लाह की रहमत पुकारती है कि है कोई पुकारने वाला कि उसकी पुकार सुनी जाए, है कोई मांगने वाला कि उसका दामने मकसूद भर दिया जाए। तो अगर कोई बंदा इन अव्कात में दुआ करता है तो उसकी दुआ बारगाहे यज़दी में मकबूल हो जाती है। माहे रमज़ान की फज़ीलत।

रात का पिछला पहर जिसे उमूमन तहज्जुद का वक़्त कहा जाता है इस वक़्त भी अल्लाह तबारक व तआला अपने बंदों की दुआ कुबूल फरमाता है और यह वक्त कुवूलियते दुआ का खास वक़्त हो जैसा कि अल्लाह के प्यारे हबीब साहिये लौलाक सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया, अल्लाह तबारक व तआला रात के आखरी तिहाई हिस्से में आसमाने दुनिया की तरफ मुतवज्जह होता है और फरमाता है, “है कोई मांगने वाला जिसको में अता करूँ! है कोई दुआ करने वाला जिसकी दुआ मैं कुबूल करूं: है कोई बखशिश तलब करने वाला जिसे मैं बख्श दूँ!” हत्ता कि सुबह हो जाती है।

तहज्जुद भी पढ़ लें :-

नमाज़े तहज्जुद हुज़ूर रहमते आलम सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसल्लम की निहायत ही पसंदीदा सुन्नत है, आपने इस पर दवाम बरता है और निहायत ही पाबंदी के साथ इसको अदा फरमाया है। वैसे तो हमें भी इस सुन्नत की पाबंदी करने की हमेशा कोशिश करनी चाहिए लेकिन माहे रमजानुल मुबारक में उसकी अदाएगी का हमारे पास बेहतरीन मोका है। और वह यह कि सहरी करने के लिए जब हम उठते हैं उससे चंद मिनट पहले उठ कर अल्लाह तआला की बारगाह में नमाज़े तहज्जुद की चंद रकआत पढ़ कर खिराजे बंदगी पेश कर दें। इंशा अल्लाहु तआला हमें उसकी बरकत जरूर हासिल होगी।

तहज्जुद का माना :-

लफ्ज़े तहज्जुद “” जिसका माना है “कुछ देर सोना” बावे तफाउल में आकर इसमें सलवियत का माना पैदा हो गया, जिसकी वजह से इसमें तकें नींद यानी जागने का माना पैदा हो गया है। इस माना के लिहाज से नमाज़े तहज्जुद इसलिए कहेंगे कि वह नींद से बेदार होकर पढ़ी जाती है यानी इसका वक्त एक नींद सोने के बाद होता है।

नमाज़े तहज्जुद का वक़्त :-

नमाज़े तहज्जुद का वक़्त नमाज़े इशा के बाद से सहरी के वक्त के खत्म होने तक है मगर उसके लिए शर्त है कि रात में कुछ देर सो कर उठने के बाद ही उसे पढ़ सकते हैं।

नमाज़े तहज्जुद की रकआत :-

हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहो अन्हो बयान फरमाते हैं कि एक शख़्स ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से नमाज़े तहज्जुद की रकआत के बारे में सवाल किया तो आप सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया, दो दो रकात पढ़ो। (बुखारी शरीफ ज 1, म.153)

हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहो अन्हो से पूछा गया, दो दो रकअत का क्या मतलब है? तो उन्होंने फरमाया, हर दो रकअत के बाद सलाम फेर दो।

अल्लाह के प्यारे हबीब, रहमते आलम सल्लल्लाहो तआला अलैहि वसल्लम ने मजकूरा हदीस में रकआत की तादाद को किसी अदद के साथ मुकैयद न फरमाया, फक्त इतनी वजाहत फरमाई कि दो दो रकअत पढ़ी जाए, कम अज़ कम हमें दो रकअत तो पढ़ ही लेनी चाहिए और अगर अल्लाह तौफीक दे तो चार, छ, आठ वा जितनी रकआत मुमकिन हो पढ़ लें।

नमाज़े तहज्जुद पढ़ने का फायदा :-

तहज्जुद की नमाज़ अगर हम नमाज़ फज्र से कुछ देर पहले पढ़ें तो इसका हमें एक बहुत ही एहम फायदा मैवस्सर आएगा वह यह कि वह वक़्त फरिश्तों की डयूटी के बदलने का होता है, क्योंकि कुछ फरिश्ते सुबह फज्र से असर तक ज़मीन पर रहते हैं और कुछ फरिश्ते असर से फजर तक। इसी लिए अल्लाह तआला ने जहाँ नमाज़ों की मुहाफिज़त का जिक्र फरमाया वहाँ नमाज़े असर का खुसूसी ज़िक्र फरमाया जैसा कि फरमाने बारी तआला है नमाज़ की मुहाफिजत करो और खुसूसन बीच वाली (असर) की।

तो जब हम तहज्जुद की नमाज पढ़ेंगे तो दिन और रात के दोनों फरिश्ते हमें मस्रूफे इबादत देखेंगे और दोनों के रजिस्टर में हमारी इबादत लिखी जाएगी। जैसा कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमायाः आखिरी शब में नमाज़ पढ़ी जाए वह फरिश्तों की हाजरी का वक़्त है।

तहज्जुद की रकआत को लंबी करो :-

हज़रत जाबिर रजियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया वह नमाज़ ज़्यादा फजीलत वाली है जिसमें क्याम लंबा हो।

इसमें हिकमत यह है कि क्याम जितना लंबा करेंगे उतनी ज़्यादा कुरआन करीम की आवतें तिलावत करेंगे और कुरआने करीम के हर एक लफ़्ज़ पर दस नेकियों हमारे नाम-ए-आमाल में लिखी जाएँगी। इस तौर पर हम ढेर सारी नेकियां अपने दामन में जमा कर सकेंगे जो कि क्यामत के होलनाक दिन में हमारे काम आ सकेंगी।

सहरी भी सुन्नते रसूल है :-

सहरी खाना हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत है। सहरी रोज़ा रखने के वक़्त से पहले आखरी वक्त में खाई जाए। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसकी ताकीद फरमाई है जैसा कि हज़रत अनस इब्ने मालिक रज़ियल्लाहो अन्हो फरमाते हैं कि रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: सहरी किया करो क्योंकि सहरी में बरकत है। (बुखारी शरीफ, जि.1, सः257)

दूसरी हदीस में आकाए नामदार, मदीने के ताजदार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस तरह फरमाया कि हमारे और एहले किताब के रोज़ों के दर्मियान फर्क सहरी खाने में है। (अबू दाउद, तिर्मिज़ी)

एक और हदीष में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह और उसके फरिश्ते सहरी खाने वालों पर दुरुद भेजते हैं।

इसी तरह अल्लाह के प्यारे हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इर्शाद फरमाया दोपहर को थोड़ी देर आराम करके क्यामुल लैल में सहूलत हासिल करो और सहरी खा कर दिन में रोज़े के लिए कुव्वत हासिल करो।

सहरी जरूर खाया करो कि इसमें दारैन की भलाई है, इत्तिबाए सुन्नत भी और रिज़्क में इजाफा का सबब भी। और आशिके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए इतना बस है कि फ्लॉ काम मेरे नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने किया है। रब्बे कदीर हम सब को अपने प्यारे हबीब की प्यारी सुन्नतों पर अमल करने की तौफीक फरमाए ।

अल्लाह रबबुल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे, हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को रसूल-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे जिन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे, आमीन ।

इस बयान को अपने दोस्तों और जानने वालों को शेयर करें। ताकि दूसरों को भी आपकी जात व माल से फायदा हो और यह आपके लिये सदका-ए-जारिया भी हो जाये।

क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए । आमीन ।

खुदा हाफिज…

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