
बिला उज़्रे शरई नमाज़ क़ज़ा करना सख़्त गुनाह है जल्द से जल्द अदा करना और तौबह करना फ़र्ज़ है। मकरूह वक़्त के अलावा किसी वक़्त भी क़ज़ा नमाज़ पढ़ सकते हैं।
साहिबे तरतीब पर तरतीब के साथ क़ज़ा नमाज़ पढ़ना फ़र्ज़ है जिसके ज़िम्मे सिर्फ़ छः नमाज़ों से कम क़ज़ा हो, वह साहिबे तरतीब है साहिबे तरतीब बगैर क़ज़ा पढ़े, जमाअत में शरीक नहीं हो सकता।
क़ज़ाए उमरी में सिर्फ़ फ़र्ज़ और वित्र की क़ज़ा पढ़ी जाएगी। पहले ज़रूरी है कि क़ज़ा नमाज़ों का हिसाब करे बालिग होने के बाद जिस क़द्र नमाज़ें क़ज़ा हुई उनको अलग अलग शुमार करके जमा कर ले यानी फ़ज्र ज़ोहर, अस्र, मग़रिब और इशा व वित्र की कुल तादाद और यह हिसाब आसान है इस लिये कि आप अपनी ज़िन्दगी के बड़े से बड़े हिसाब अन्दाज़े से या कम ज़्यादा करके निपटा सकते हैं तो क़ज़ा नमाज़ों का हिसाब भी अन्दाज़े से किया जा सकता है।
कुछ ज़्यादा हो जाए कोई हरज नहीं कम न हो। जैसे आपने हिसाब किया कि फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा की तादाद दो हज़ार है, ज़ोहर की एक हज़ार है इसी तरह तमाम नमाज़ों की तादाद हिसाब करके लिख लें फिर आप फ़ज्र के वक़्त फ़ज्र की क़ज़ा, ज़ोहर के वक़्त, ज़ोहर की कज़ा, इसी तरह नमाज़ों की क़ज़ा पढ़ते रहे और हिसाब से कम करते रहे, क़ज़ाए उमरी के लिये नियत इस तरह करे।
मेरे ज़िम्मे जितनी फ़ज्र की नमाज़ बाक़ी हैं उनमें से पहली नमाज़ अदा करने की नियत की।
इसी तरह हर नमाज़ में नियत करते रहें। फ़ज्र की पढ़ना हो तो फ़ज्र का नाम लें, जोहर की पढ़ना हो तो ज़ोहर इसी तरह अस्र, मग़रिब, इशा और वित्र की नियत करें एक तरीक़ा यह भी है कि पहले तमाम फ़ज्र की क़ज़ा पढ़ ली जाए फिर ज़ोहर की तमाम क़ज़ा इसी तरह फिर अस्र, मग़रिब इशा और वित्र की पढ़ी जा सकती हैं, हिसाब रखना ज़रूरी है।
अगर मुसाफ़िर होने की हालत की नमाज़ें हों तो अपने वतन में भी चार फ़र्ज़ की जगह दो रकअत कसर की पढ़ेगा।फ़िक़ही मसाइल और तर्के नमाज़ की सजाएं।Fiqhi masail aur tark-e-namaz ki sazaein.
मस्अला :- क़ज़ा नमाज़ें नवाफ़िल से अहम हैं यानी जिस वक़्त नफ़्ल पढ़ता है यानी ज़ोहर में आख़िर के दो नफ़्ल अस्र की शुरू की चार सुन्नत, मग़रिब में आख़िर के दो नफ़्ल, इशा के शुरू की चार सुन्नत और वित्र से पहले और बाद के दो दो नफ़्ल, इन्हें छोड़कर इनके बदले क़ज़ाए पढ़ें ताकि बरिज़्ज़िम्मा हो जाए, इसी तरह जागने वाली रातों में नवाफ़िल की जगह क़ज़ा नमाज़ पढ़े तो बहतर है।
क्यूँकि क़ज़ा नमाज़ जब तक पूरी न हो जाए नफ़्ल कुबूल नहीं होती है जिसके ज़िम्मे फ़र्ज़ नमाज़ की क़ज़ा बाक़ी हो और वह नफ़्ल नमाज़ें अदा करने की फ़िक्र में लगा रहे उसकी मिसाल ऐसी है जैसे किसी शख़्स पर बहुत सा क़र्ज़ बाक़ी हो और वह क़र्ज़ अदा करने के बजाए लोगों में खैरात तक़सीम करता फिरे।
अल्लाह रब्बुल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे, हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक़ आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे ज़िन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे, आमीन ।
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क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए । आमीन ।
खुदा हाफिज…
One thought on “क़ज़ा नमाज़ और क़ज़ाए उमरी का बयान।Qaza Namaz aur Qaza-e-Umri ka bayan.”