जुमा का दिन वैसे तो सब दिन अल्लाह तआला के बनाए हुए हैं। मगर जुमे के दिन की अहमियत को बयान करते हुए अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने इर्शाद फरमाया : अल्लाह तआला ने हम से पहले के लोगों को जुमे से मेहरूम रखा। चुनांचे यहूदियों के लिए सनीचर और ईसाईयों के लिए इतवार का दिन था। फिर अल्लाह हमें ले आया और उसने हमारी जुमे के दिन की तरफ रहनुमाई की।
उसने दिनों की तरतीब इस तरह बनाई कि पहले जुमा, फिर सनीचर और उसके बाद इतवार । इसी तरह वह कयामत के दिन भी हमसे पीछे होंगे। हम दुनिया में आए तो आखिर में हैं लेकिन कयामत के रोज हम पहले होंगे और तमाम उम्मतों में सबसे पहले हमारा फैसला किया जाएगा।” (मुस्लिम – 856)
सबसे बेहतर दिन जिसका सूरज तुलूअ हुआ, जुमे का दिन है। जुमे के दिन हज़रत आदम अलैहि सलाम को पैदा किया गया। जुमे के दिन ही उन्हें जमीन पर उतारा गया।जुमे के दिन ही उनकी तौबा कुबूल की गई।जुमे के दिन ही उनकी वफात हुई और जुमे के दिन ही कयामत कायम होगी। मदीना का पहला जुम्आ।
हर जानदार जुमे के दिन सुबह से लेकर सूरज निकलने तक कयामत से डरते हुए उसके इन्तेजार में रहता है सिवाए जिन्न व इन्स के और जुमे के दिन एक वक्त ऐसा भी आता है कि ठीक उसी वक्त में जो बन्दा ए मुस्लिम नमाज़ पढ़ रहा हो और वह अल्लाह से जिस चीज़ का सवाल करे तो अल्लाह उसे वह चीज अता करता है।
जुमा की नमाज़ किस पर फ़र्ज़ है ?
जुमे दिन सबसे अहम इबादत नमाजे जुमा है। यह हर मुकल्लिफ पर फर्ज है। इस बारे में इर्शाद बारी तआला है- ऐ ईमान वालों! जुमे के दिन जब नमाजे जुमा के लिए अजान कही जाए तो ज़िक्रे इलाही ( नमाज) की तरफ दौड़कर आओ और खरीद व फरोख्त छोड़ दो। अगर तुम जानो तो यही तुम्हारे लिए बेहतर है।” (सूरह जुमा आयत-9)
और अल्लाह के रसूल सल्ल. ने फरमाया : नमाजे जुमा अदा करना हर मुकल्लिफ मुसलमान पर हक व वाजिब है। सिवाए चार अफराद के गुलाम, औरत ,बच्चा, और मरीज ।” (अबुदाऊद- 1067-सही)
इसी तरह मुसाफिर पर भी जुमा फर्ज नहीं है।
नमाजे जुमा बा जमाअत अदा करना फर्ज है। इसे अकेला पढ़ना सही नहीं और जिस शख्स की नमाजे जुमा फौत हो जाए, वह जोहर की चार रकअत अदा करे। नमाजे जुमा बगैर किसी शरई उज्र के नहीं छोड़ना चाहिये । इसलिए कि
जो आदमी गफलत की वजह से तीन जुमे छोड़ दें, अल्लाह उसके दिल पर मुहर लगा देता है।” (अबुदाऊद-1052-सही) ग़ुस्ल कब फर्ज़ होता है।
और यह कि “लोग नमाजे जुमा छोड़ने से बाज आ जाएं। वरना अल्लाह तआला उनके दिलों पर मुहर लगा देगा। फिर वह गाफ़िलों में हो जाएंगे। ” (मुस्लिम – 865)
अल्लाह के रसूल सल्ल. ने यह भी फरमाया कि “मेरा दिल चाहता है कि मैं एक आदमी को हुक्म दूँ कि वह लोगों को नमाज पढ़ाए। फिर मैं उन लोगों को उनके घरों समेत आग लगा दूं जो नमाजे जुमा से पीछे रहते है। (मुस्लिम 852)
जो आदमी जुमे के दिन गुस्ल करें। अपनी ताकत भर पूरी तहारत करें तेल लगाए या अपने घर वालों को खुश्बू लगाए। फिर मस्जिद में पहुंच कर दो आदमियों को अलग-अलग न करे यानि जहां जगह पाए वहीं बैठ जाए फिर वह नमाज़ अदा करे जितनी उसके मुकद्दर में लिखी गई है। फिर जब इमाम खुत्बा दे तो वह खामोशी से सुने तो दूसरे जुमे तक उसके गुनाह माफ कर दिये जाते है।” (बुखारी – 883)
और यह कि “जिस शख्स ने जुमें के दिन गुस्ल कराया और खुद गुस्ल किया। नमाज के लिए अव्वल वक्त में आया और जुमे का खुत्बा शुरू से सुना । चलकर आया, सवार नहीं हुआ। इमाम के करीब बैठकर खुत्बा सुना और कोई फालतू हरकत नहीं की तो उसे हर कदम पर एक साल के रोजों और एक साल के कयाम सवाब मिलेगा। (अबुदाऊद- 345, इब्ने माजा – 1087-सही)
अहादीस का मफ़हूम है की : जिस शख्स ने जुमे के दिन गुस्ले जिनाबत की तरह गुस्ल किया, फिर वह जुमे की नमाज के लिए मस्जिद में चला गया तो उसने गोया एक ऊंट की कुर्बानी की, जो शख़्स दूसरी घड़ी में मस्जिद पंहुचा गोया उसने गाय की कुर्बानी की,और जो तीसरी घड़ी में पहुंचा, उसने गोया सींगोवाले एक मेंढे की कुर्बानी की,जो चौथी घड़ी में मस्जिद गया गोया उसने एक मुर्गी की कुर्बानी की,और जो पांचवी घड़ी में गया गोया उसने एक अन्डे की कुर्बानी की। फिर जब इमाम मिम्बर की तरफ चल निकले तो फरिश्ते मस्जिद में हाज़िर हो कर जिक्र खुत्बा सुनते है। (बुखारी – 881, मुस्लिम-850) फ़ज़्र की नमाज़ पढ़ने का तरीका।
जब जुमे का दिन आता है तो मस्जिद के हर दरवाजे पर फ़रिश्ते पहुंच जाते है जो आने वालों के नाम बारी-बारी लिखते हैं फिर जब इमाम मिम्बर पर बैठ जाता है तो अपने सहीफो को लपेट कर मस्जिद में आ जाते हैं और खुत्बा सुनते हैं।” (बुखारी-929)
अगर हम यह चाहतें हैं कि जुमे के दिन फरिश्ते अपने सहीफों में हमारा भी नाम लिखें तो हमें चाहिये कि इमाम के मिम्बर पर पहुंचने से पहले हम मस्जिद पहुंचे। तभी हमें कुर्बानी का भी सवाब मिलेगा।
जुमे के दिन एक घड़ी ऐसी आती है कि उसमें कोई मुसलमान बन्दा नमाज पढ़ रहा हो और अल्लाह से दुआ मांगे तो अल्लाह उसकी वह दुआ कुबूल करता है। (बुखारी-935, मुस्लिम -852)
जो शख्स नमाजे जुमा के बाद नमाज पढ़ना चाहे तो चार रकअत पढ़े। अगर तुम जल्दी में हो तो दो रकअत मस्जिद में और दो रकअत घर लौटकर पढ़ लो।” (मुस्लिम-881)
हज़रत उमर फारूक रजि. जुमे की नमाज़ पढ़कर घर चले जाते थे और घर पर दो रकअत पढ़ते थे और कहते थे आप सल्ल. भी ऐसा ही किया करते थे।” (मुस्लिम 882)
नबी सल्ल. पर कसरत से दुरुद पढ़े।
अक्सर हजरात इसी कश्मकश में रहते है के जुम्मे के दिन क्या पढ़ना चाहिए? तो बहरहाल आपको बता दें: इस दिन व रात में अल्लाह के रसूल सल्ल. पर ज्यादा से ज्यादा दुरुद पढ़ना चाहिये।
क्योंकि अल्लाह के रसूल (स.व)ने फरमाया तुम इस दिन मुझ पर कसरत से दुरुद पढ़ा करो। तुम्हारा दुरुद मुझ पर पेश किया जाता है। सहाबा किराम रजि. ने कहा हमारा दुरुद आप पर कैसे पेश किया जाएगा? जबकि (कब्र में आपका जस्दे अतहर) तो बोसीदा हो जाएगा। आप सल्ल. ने जवाब दिया बेशक अल्लाह तआला ने जमीन पर अम्बिया के जिस्मों को खाना हराम कर दिया है।(अबुदाऊद- 104 सही) वुजू का तरीक़ा।
मेरी उम्मत का दुरुद मुझ पर हर जुमे को पेश किया जाता है। पस जो शख्स मुझ पर ज़्यादा दुरुद पढ़ेगा, वह सबसे ज़्यादा मेरे करीब होगा (बेहकी-6089)Jume ke Din ki Ahmiyat wa Fazilat.
जो मुझ पर एक दफा दुरुद भेजता है, अल्लाह उस पर दस रहमतें नाजिल करता हैं। (मुस्लिम-409)
जो शख्स मुझ पर एक दफा दुरुद भेजता है तो अल्लाह उस पर दस रहमतें नाज़िल करता है, उसके दस गुनाह मिटा देता है और उसके दस दर्जात बुलन्द करता है। (सही अल जामेअ – 6359)
जो शख्स सुबह के वक्त दस दफा और शाम के वक्त दस दफा मुझ पर दुरुद भेजता है, उसे कयामत के दिन मेरी शफाअ होगी।
नमाजे जुमा को पाने के लिए जरुरी है कि नमाजी इमाम के साथ कम से कम आखिरी रकअत पा ले।
अगर वह आख़िरी रकअत नहीं पाता या वह इमाम के साथ दूसरी रकअत के रुकूअ के बाद शरीक होता है तो उसे इमाम के सलाम फेरने के बाद खड़े होकर सिर्फ दो रकअत नहीं बल्कि जोहर की चार रकअत पढ़नी होगी इसलिए की आप सल्ल. ने फरमाया :”जो शख्स नमाजे जुमा की एक रक्अत पा ले, वह उसके साथ एक रकअत को और मिलाए। (इब्ने माजा-1121-सही)
जो शख़्स नमाजे जुमा या किसी और नमाज की एक रकअत पा ले तो उसने नमाज बाजमाअत का सवाब पा लिया।” (नसाई – 557, इब्रेमाजा- 1123-सही)
ज़रत अबू हुरैरह रजि० रिवायत करते हैं कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि सब में बेहतर व अफज़ल दिन जुमे का है इसी दिन हज़रत आदम अलैहिस्सलाम पैदा हुए और इसी दिन जन्नत के अन्दर दाख़िल हुए इसी दिन वहां से निकाले गए और इसी दिन कियामत कायम होगी।”(मुस्लिम मिश्कात 111)
और फरमाया- “लोगों! जुमे के दिन मुझ पर ज़्यादा से ज़्यादा दुरूद पढ़ा करो तुम्हारे दुरूद फ़रिश्तो के जरिए मुझ तक पहुंचते हैं । (इब्ने माजा 113)
और फ़रमाया-“अगरचे हम पैदाइश में सबसे पीछे हैं. लेकिन दर्जे में कियामत के दिन सबसे आगे होंगे और हम ही सबसे पहले जन्नत में दाखिल होंगे और लोगों को हम से पहले किताब मिली है उन्होंने एक सच्ची बात मतलब जुमे के दिन में मतभेद किया फिर अल्लाह ने हमें उसकी ओर राह दे दी हमारी ईद मतलब जुमा पहले है और यहूद व ईसाईयों की ईद उसके बाद है अर्थात हफ्ता व इतवार ।
और फ़रमाया-जुमे के दिन एक ऐसी मक़बूल घड़ी है कि उसमें मुसलमान जो भी दुआ करता है वह क़ुबूल होती है।”(सहीहीन मिश्कात 111)
फायदा :- इस मकबूल घड़ी में उलेमा का अक्सर इख्तेलाफ है उलेमा इस ओर गए हैं कि इससे जुमे के दिन की आखिरी घड़ी मुराद है मतलब असर से मग़रिब तक। कुछ हदीसों से साबित होता है कि वह घड़ी इमाम के मिम्बर पर बैठने से लेकर नमाज़ के खत्म होने तक है तमाम हदीसों के देखने से मालूम होता है कि यह घड़ी सुबह सादिक से लेकर सूरज के अस्त होने तक किसी समय भी हो सकती है हां, इमाम के खुत्बे से खत्म नमाज़ तक और असर की नमाज़ से सूरज के अस्त होने तक अक्सर होती है।
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फरमाया कि चूंकि जुमे के दिन कियामत होगी इसलिए हर जुमे के दिन सुबह से लेकर शाम तक मुकर्रब फरिश्ते और आसमान व ज़मीन, हवा, पहाड़, दरिया और सारे जानवर कांपते थर्राते रहते हैं कि कहीं आज ही कियामत न टूट पड़े और फरमाया कि जो मुसलमान जुमे की रात या दिन को मर जाएगा अल्लाह तआला उसे कब्र के फ़ित्ने से बचा लेगा। (इब्ने माजा मिश्कात 112 अहमद तिर्मिज़ी 113)
जुमे का गुस्ल करना वाजिब है :-
जुमे के दिन जुमे की नमाज़ अदा करने के लिए गुस्ल करना वाजिब है नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- “हर मुसलमान पर अल्लाह का हक़ है कि हर सात दिन में अपना सर और बदन धोए।”
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मिम्बर पर खड़े होकर फरमाया कि जो तुम में जुमे के दिन जुमे के लिए आये पहले नहा ले। (मुस्लिम 280)
एक बार का ज़िक्र है कि हज़रत उमर फारूक आज़म रज़ियल्लाहो अन्हो जुमे का खुत्बा पढ़ रहे थे इतने में हज़रत उसमान रज़ियल्लाहो अन्हो तशरीफ लाए ज़रा देर करके हज़रत उमर रज़ियल्लाहो अन्हो ने फरमाया कि यह क्या आने का समय है? मतलब पहले आना चाहिए था। हज़रत उसमान रज़ियल्लाहो अन्हो ने फरमाया कि मैं एक ज़रूरी काम से गया हुआ था घर में नहीं गया अज़ान सुनी तो कुछ भी न हो सका केवल वुजू करके चला आया।
फारूक आज़म ने फरमाया “और क्या केवल वुजू ही? तुम्हें मालूम है कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने गुस्ल का हुक्म फरमाया है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फरमाया कि जुमे के दिन मुसलमानों को गुस्ल करना और खुश्बू लगाना चाहिए। अगर खुश्बू न मिल सके तो उन्हें गुस्ल का पानी ही काफी है। अगर हैसियत हो तो जुमे के कपड़े अलग से बनवाके रखे। गुस्ल करते समय ज़रूरत से कोई बात करना जायज़ है। (मुस्लिम 280, अहमद तिर्मिज़ी मिश्कात 115)
जुमे की नमाज़ का वक्त :-
जुमे की नमाज़ का समय ज़वाल से शुरु हो जाता है ज़वाल के बाद जब थोड़ा साया ढल चुके तो नमाज़ जुमा अदा करें और जुमे की नमाज़ का पहला समय है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा फरमाते हैं कि जुमे के दिन जब तक जुमे की नमाज अदा न कर लेते न तो दोपहर को सोते न खाना खाते। जब सर्दी अधिक बढ़ने लगती तो नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जल्दी नमाज़ पढ़ा करते और जब गर्मी ज्यादा होती तो थोड़ी आप देरी करते और ठहर कर नमाज़ पढ़ाते ।
सहाबा किराम रज़ियल्लाहो अन्हुम जब नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पाक ज़माने में जुमे की नमाज पढ़कर घरों को वापस जाते तो दीवारों का साया इतना न होता था कि उसमें चल सकें। (मुस्लिम 283, बुखारी मिश्कात 484)
जुमे का नमाज़ पढ़ने का सवाब :-
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया-“जो आदमी अल्लाह और कियामत पर ईमान रखता है उस पर जुमे के दिन जुमा फ़र्ज़ है मगर रोगी, मुसाफ़िर और औरत और नाबालिग लड़के व गुलाम पर फर्ज़ नहीं।(दारकुतनी मिश्कात 114)
जुमे की नमाज़ शहर व गांव वालों पर फर्ज़ है जो लोग गांव वालों पर जुमा फ़र्ज़ नहीं समझते वे अल्लाह के फ़र्ज़ से लोगों को रोक रहे हैं इसका खमियाज़ा उन्हें आखिरत में भुगतना होगा इमाम के अलावा यदि दो आदमी भी कहीं हों तो उनको जुमा कायम करना चाहिए। (बुखारी, तिर्मिज़ी 101)
जुमे के दिन नमाज़ से पहले इमाम मिम्बर पर खड़े होकर दो खुत्बे पढ़े इसके बाद दो रकअत ऊंची क़िरअत से नमाज़ अदा करे। फर्जों के बाद वहां से थोड़ा हट कर दो रकआत या चार रकआत सुन्नत अदा करे। कुछ सहाबा से फ़र्ज़ो के बाद छः रकआतें भी साबित हैं (सहीहीन मिश्कात 614)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जब जुमे का दिन आता है तो फरिश्ते मस्जिद के दरवाज़े पर आ खड़े होते हैं और आने वालों को लिखने लगते हैं जो आदमी सबसे पहले आता है उसे इतना सवाब मिलता है मानो उसने एक ऊंट मक्का मैं कुरबान किया और जो उसके बाद आते हैं उन्हें गाय की कुरबानी का सवाब मिलता है और उनके बाद आने वालों को दुम्बे की कुरबानी का सवाब मिलता है और जो उनके पीछे आते हैं उन्हें मुर्गी और अण्डों के खैरात करने का सवाब मिलता है और जब इमाम खुत्बा पढ़ने के लिए मिम्बर पर बैठता है तो फरिश्ते आमालनामे के दफ़्तर लपेट लेते हैं और खुत्बा सुनने के लिए मस्जिद में आ जाते हैं। जुमा उन लोगों पर वाजिब होता है जिनके कानों में अज़ान के अल्फ़ाज़ पहुंचते हैं। (अबूदाऊद मिश्कात शरीफ 12-14)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जो आदमी पाक साफ होकर जुमा पढ़ने के लिए मस्जिद में जाता है और लोगों को उनकी जगह से नहीं हटाता नमाजियों की गर्दनें नहीं फलांगता फिर जितना हो सकता है नफल नमाज़ पढ़ता और इमाम के खुत्बे पढ़ने के समय खामोश बैठा रहता है उसके वे सारे गुनाह बख्श दिए जाते हैं जो पिछले जुमे से इस जुमे तक हुए हैं बल्कि तीन दिन ज़्यादा के गुनाह बख्शे जाते हैं। (तिर्मिज़ी, अबूदाऊद, नसई, इब्ने माजा)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जो आदमी पैदल सवेरे सबसे पहले मस्जिद में जाए और इमाम के पास बैठकर खुत्बा सुने और कोई बात न करे उसे हर क़दम के बदले साल भर के रोज़ों का सवाब मिलता है और साल भर की पूरी रात इबादत करने का सवाब मिलता है। (सहीहीन मिश्कात 116)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि जिस आदमी ने जुमे की एक रकअत भी पा ली उसने जुमा पा लिया और जिसने एक रकअत भी न पायी बल्कि आखिर तशहहुद में मिला उसे जुहर के फ़र्ज़ो की चार रकअतों को पढ़ना चाहिए। अगर कुछ आदमी इमाम के साथ सलाम फेर देने के बाद आएं तो जुहर की नमाज़ अलग अलग पढ़ें। दोबारा जुमे की नमाज़ पढ़ना हदीस से साबित नहीं। हां, यदि किसी दूसरी मस्जिद में जुमा मिल जाए तो तुरन्त वहां जाकर जुमा अदा कर लेना चाहिए। (दारकुतनी मिश्कात 114)
जुमा छोड़ने की मज़ामत :-
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि लोग जुमे को छोड़ने से बाज़ रहें वर्ना अल्लाह उनके दिलों पर मुहर लगा देगा और फिर वे गफलत में पड़ जाएंगे।” यह भी फरमाया कि जो आदमी बे परवाई से जुमा छोड़ देता है अल्लाह उससे बे परवाई करेगा जुमा की नमाज़ में हाज़िर न होने वालों के हक़ में नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया है कि मेरा जी चाहता है कि उनके घर जला दूं यह भी फ़रमाया कि जो आदमी बिना किसी शरई वजह के एक जुमा छोड़ दे तो एक दीनार खैरात करे अगर एक दीनार न हो तो आधा जरूर करे। (मुस्लिम मिश्कात 123-113)
जिस दिन बारिश हो और जुमे में न जा सके तो जुहर की नमाज़ अपने-अपने घरों में पढ़ लें। (अहमद, अबूदाऊद, इब्ने माजा मिश्कात मुस्लिम)
खुत्बे की अज़ान और जुमे में किरअत :-
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जुमे के दिन दो खुत्बे खड़े होकर पढ़ते और दोनों के बीच में थोड़ी देर बैठ जाते जैसा कि आजकल होता है। आप दोनों खुत्बों में आम तौर से कुरआन मजीद की आयतें पढ़ा करते और अक्सर ऐसा होता कि सूरह काफ पढ़ते और लोगों को असरदार ढंग से नसीहत करते। बैठकर खुत्बां पढ़ना नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से साबित नहीं। एक सहाबी ने एक आदमी अब्दुर्रहमान बिन उम्मुल हकम को बैठ कर खुत्बा पढ़ते देखा। फरमाया देखो यह खबीस बैठकर खुत्बा पढ़ता है।(मुस्लिम मिश्कात 151-115)
खुत्बा पढ़ते समय नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आंखे सुर्ख हो जातीं आवाज़ भारी पड़ जाती, गुस्सा बढ़ जाता मानो आप एक ऐसे खतरनाक लश्कर से भय दिला रहे हैं जो सुबह या शाम को हमला करने वाला है आप शहादत और बीच की उंगली मिलाकर फरमाते कि जिस तरह ये दोनों अंगलियां एक साथ हैं तो इसी तरह मैं और कियामत एक साथ हैं मतलब मेरा आना कियामत की निशानी है।
इसके बाद खुदा की हम्द व सना बयान करते फ़रमाते जान लो कि सबसे बेहतर किताबुल्लाह है और तमाम तरीकों में बेहतर तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का है सब रस्मों में बुरी रस्म वह है जो नयी निकाली गयी हो और सब नयी रस्में गुमराही में डालने वाली हैं। (मुस्लिम मिश्कात 115-19)
खुत्बे की अज़ान से मुसलमानों पर खरीद फरोख्त हराम हो जाती है। इमाम को चाहिए कि मुक्तदियों की ओर मुंह करके मिम्बर पर बैठे और मुक्तदी इमाम के सामने उसके करीब बैठने की कोशिश करें। जब इमाम मिम्बर पर बैठे तो उसके सामने मस्जिद के सेहन में पुकार कर अज़ान दी जाए। कुरआन मजीद की आयत “इज़ा नूदिया लिस्सलाति” में इसी अज़ान का ज़िक्र है। नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पाक ज़माने में एक यही अज़ान थी इसी तरह हज़रत अबू बक्र सिद्दीक रज़ियल्लाहो अन्हो और हज़रत उमर फारूक रज़ियल्लाहो अन्हो के ज़माने में भी यही अज़ान थी।(पारा 28 सूरह: जुमा, तिर्मिज़ी मिश्कात 116)
लेकिन जब हज़रत उसमान रज़ियल्लाहो अन्हो की खिलाफत का ज़माना आया और आपने लोगों की अधिक तादाद देखी तो आपने खुत्बे की अज़ान से पहले एक और अज़ान सहाबा की मौजूदगी में जारी की। किसी ने इस पर इन्कार नहीं किया और जब यह है तो अज़ान नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इर्शाद के अनुसार खुलफाए राश्दिीन की सुन्नत में दाखिल है जो लोग इस अज़ान को बिदअत बताते हैं यह उन की गलत फहमी है लेकिन यह अज़ान मस्जिद से बाहर होनी चाहिए। मस्जिद में यह अज़ान देनी बिदअत है। हज़रत उसमान ने मस्जिद से बाहर जोरा बाजार में दिलवायी थी।
जब खुत्बे की अज़ान हो चुके तो इमाम मिम्बर पर खड़े होकर दो खुत्बे पढ़े.। खुत्बे के दौरान जो लोग आएं उन्हें हल्की सी दो रकअतें बैठने से पहले ही पढ़ लेनी चाहिए। लोग बहोत खामोशी के साथ खुत्बा सुनें और जहां जगह पाएं बैठ जाएं खुत्बा होने के समय बोलने वाले को नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने गधा फरमाया है। यह भी फरमाया है कि वह जुमे के सवाब से महरूम रहता है। (मुस्लिम मिश्कात 115, बुखारी मिश्कात 115)
जुमे के दिन अच्छे कपड़े बनाने की बात हदीस से साबित है। खुत्बे के समय यदि किसी को नींद आए तो तुरन्त जगह बदल कर बैठे। खुत्बा के समय अगर इमाम से कोई मसला पूछा जाए तो तुरंत जवाब दे या उचित बात कहे। खुत्बे के दौरान जब कोई मुसलमान होने की प्रार्थना करे तो खुत्बा छोड़कर उसे इस्लाम की तलकीन करनी चाहिए। (सहीहीन मिश्कात 114)
अगर मुक्तदियों को कोई कार्रवाई खिलाफ लगे तो इमाम को इस पर सचेत करें और इमाम को चाहिए कि मुसलमानों को अच्छी तरह नसीहत करे और कलिमे की उंगली से इशारा करके अच्छी तरह समझाए। अल्लाह के डर और कियामत के खौफ से डराए। इमाम को चाहिए कि खुत्बे को छोटा और नमाज़ को थोड़ा लम्बी करे यह उसकी अक्लमन्दी में दाखिल है। कुछ शहरों में जुमा और ईद के दिन “अस्सलातु” पुकारी जाती है यह बिदअत है।
हज़रत अली रजियल्लाहु तआला अन्हु के समाने मस्जिद में किसी ने “अस्सलातु” पुकारी। फरमाया कि इस बिदअती को मस्जिद से बाहर निकाल दो खुत्बे के समय इमाम और मुक्तदियों को हाथ उठकार दुआ मांगनी बिदअत है इमाम यदि असा (लाठी)हाथ में लेकर खुत्बा पढ़े तो सुन्नत है खुत्बे के समय दोनों घुटने खड़े करके चूतड़ों पर बैठना मना है। (इमाम अहमद मिश्कात 115)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का खुत्बा और नमाज़ बीच के दर्जे की होती थी। खुत्बे के समय आने वाले न सलाम करें न बैठें हुए जवाब दें। यदि ईद के दिन जुमा आ जाए तो दोनों अपने अपने वक्तो पर पढ़ें। इस सूरत में अगर जुमा न भी पढ़ें तब भी जायज़ है नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इजाज़त दे दी है। (मुस्लिम मिश्कात 115)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सूरह: आला और सूरह: ग़ाशियह पढ़ा करते थे और सूरह: जुमा और मुनाफिकून भी पढ़ा करते थे मगर जुमे के दिन फज्र की नमाज़ में सूरह: बकरा, सूरह: सज्दा और सूरह: दहर हमेशा पढ़ा करते थे। खुतबे के दौरान यदि दिल ही दिल में दुआ करें तो जायज़ है लेकिन हाथ उठाकर दुआ मांगना बिदअत है।
बिना किसी शरई वजह जुमा छोड़ने वाले को एक दीनार कफारह के तौर पर मोहताजों को देना चाहिए यदि यह न हो सके तो आधा दीनार मतलब एक रुपया 12 आने दे दे। यह भी न हो तो एक साअ मतलब ढाई सेर ढाई छटांक गेंहू खैरात कर दे। यदि यह भी न हो सके तो आधा साअ ही देदे।
कुछ हदीसों में एक मृदद अनाज भी आया है और आधा मुदद मतलब पौने तीन पाव अनाज भी दिया जा सकता है।(अबूदाऊद, इब्ने माजा, मिश्कात 113)
अल्लाह रबबुल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे, हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को रसूल-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे जिन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे, आमीन ।
इस बयान को अपने दोस्तों और जानने वालों को शेयर करें। ताकि दूसरों को भी आपकी जात व माल से फायदा हो और यह आपके लिये सदका-ए-जारिया भी हो जाये।
क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए । आमीन ।
खुदा हाफिज…