यहां यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि दीन के इल्म की दो किस्में हैं, पहली क़िस्म यह है कि दीन का इतना इल्म सीखना जो इन्सान को अपने फ़राइज़ और वाजिबात अदा करने के लिये ज़रूरी है,
जैसे यह कि नमाज़ कैसे पढ़ी जाती है? नमाज़ों में रक्अतों की तादाद कितनी है ? नमाज़ में कितने फ़राइज़ और वाजिबात हैं? रोज़ा कैसे रखा जाता है, और किस वक़्त फ़र्ज़ होता है? जकात कब फ़र्ज़ होती है, और कितनी मिकदार (मात्रा) में किन अफ़राद को अदा की जाती है?Itna ilm shikhna lazmi farz hai.
और हज कब फ़र्ज़ होता है ? और यह कि कौन सी चीज़ हलाल है और कौन सी चीज़ हराम है ? जैसे झूठ बोलना हराम है, ग़ीबत करना हराम है, शराब पीना हराम है, खिन्जीर खाना हराम है, यह हलाल व हराम की बुनियादी मोटी मोटी बातें सीखना,
इसलिये इतनी मालूमात हासिल करना जिसके ज़रिये इन्सान अपने फ़राइज़ और वाजिबात अदा करे और हराम से अपने आपको बचा सके, हर मुसलमान और औरत के जिम्मे लाज़मी फर्ज़ है।
हदीस शरीफ़ में आया है कि: यानी इल्म का तलब करना हर मुसलमान मर्द और औरत के जिम्मे फर्ज़ है। इस से मुराद यही इल्म है। इतना इल्म हासिल करने के लिये जितनी भी कुरबानी देनी पड़े कुरबानी दे, जैसे मां बाप को छोड़ना पड़े तो छोड़े, बीवी को और बहन भाईयों को छोड़ना पड़े तो छोड़े,Itna ilm shikhna lazmi farz hai.
इसलिये कि इतना इल्म हासिल करना फ़र्ज़ है। अगर कोई यह इल्म हासिल करने से रोके, जैसे मां बाप रोकें, बीवी रोके, या बीवी को शौहर रोके तो उनकी बात मानना जायज़ नहीं ।
इल्म की दूसरी किस्म यह है कि आदमी दीन के इल्म की बाकायदा पूरी तफ़सीलात हासिल करे और बाकायदा आलिम बने, यह हर इन्सान के जिम्मे फर्जे जैन (लाज़मी फ़र्ज़) नहीं है, बल्कि यह इल्म फ़र्जे किफ़ाया है। अगर कुछ लोग आलिम बन जायें तो बाकी लोगों का फरीज़ा भी अदा हो जाता है।
जैसे एक बस्ती में एक आलिम है और दीन की तमाम ज़रूरतों के लिये काफी है, तो एक आदमी के आलिम बन जाने से बाकी लोगों का फरीजा भी साकित हो जायेगा,Itna ilm shikhna lazmi farz hai.
और अगर कोई बड़ी बस्ती हो या शहर हो तो उसके लिये जितने आलिमों की ज़रूरत हो, उस जरूरत के मुताबिक उतने लोग आलिम बन जायें तो बाकी लोगों का फ़रीज़ा हो जायेगा ।
बहरहाल ! जब हुज़ूरे अक्स सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह महसूस किया कि इन हज़रात ने फर्ज़े जैन के लायक जो इल्म था वह बीस दिन में हासिल कर लिया है, और अब उनको और यहां रोकने में यह अन्देशा है कि उनके घर वालों की हक़ तल्फी न हो।
इसलिये आपने उन हज़रात से फरमाया कि अब आप अपने घरों को वापस जाओ, लेकिन साथ ही यह तंबीह भी फ़रमा दी कि यह न हो कि घर वालों के पास जाकर गफलत के साथ जिन्दगी गुज़ारना शुरू कर दो, बल्कि आप (स.व)ने फ़रमाया कि जो कुछ तुमने यहां रह कर इल्म हासिल किया और जो कुछ दीन की बातें यहां सीखीं वे बातें अपने घर वालों को जाकर सिखाओ।
इस से पता चला कि हर इन्सान के जिम्मे यह भी फ़र्ज़ है कि वह जिस तरह खुद दीन की बातें सीखता है, अपने घर वालों को भी सिखाये, उनको इतनी दीन की बातें सिखाना जिनके जरिये वे सही मायनों में मुसलमान बन सकें और मुसलमान रह सकें,Itna ilm shikhna lazmi farz hai.
यह तालीम देना भी हर मुसलमान के जिम्मे फर्जे ऐन है। और यह ऐसा ही फर्ज है जैसे नमाज़ पढ़ना फर्ज है, जैसे रमजान में रोजे रखना फर्ज है, जकात अदा करना और हज अदा करना फ़र्ज़ है, ये काम जितने जरूरी हैं, इतना ही घर वालो को दीन सिखाना भी ज़रूरी है।
इस बयान को अपने दोस्तों और जानने वालों को शेयर करें।ताकि दूसरों को भी आपकी जात व माल से फायदा हो और यह आपके लिये सदका-ए-जारिया भी हो जाये।
क्या पता अल्लाह तआला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए ।आमीन।
खुदा हाफिज…