
ईमाम जलालुद्दिनस्यूती ने शरहउस्सदूर में लिखा है कि मैय्यत के लिये कुरआन पढ़ने से आया मैय्यत को सवाब मिलता है या नहीं?
इसमें इख़्तेलाफ है जम्हूर सल्फ और आईम्मा मुज़तहदीन सवाब पहुंचने के क़ायल हैं हमारे ईमाम, ईमाम शायी ने एख़्तेलाफ किया उन की दलील यह आयत है कि “व अलैसालिलइंसानइल्लामासआ” तर्जुमा:- इंसान को उसी की कोशिश का बदला मिलेगा। लेकिन इस आयत का जवाब चन्द वजह से दिया गया है। अव्वल तो यह कि यह आयत मंसूख है इस आयत से “वल्लज़ीना आमन वत्त बअत हुम जुर्रियतहुम” और वह लोग जो ईमान लाये और उनके बाद उनकी जुर्रियत आई। इस आयत का मफाद यह है कि बेटों को बाप की नेकी से जन्नत में दाखिल कर दिया गया।
दुसरा यह कि यह आयत क़ौम इब्राहीम व मूसा के साथ मख़्तस है लेकिन यह उम्मते मरहूमा तो इसको वह भी मिलेगा जो खुद करेगी और वह भी जो उसके लिये किया जायगा यह क़ौल अकरमा का है। तीसरे यह कि इंसान से मुराद यहाँ काफिर है और मोमिन इससे मुस्तसना हैं यह क़ौल रबीय बिना अनस का है।
चौथे यह क़ानून अदल है और दूसरे के किये से फायदा का पहुंचना इसका फज़ल है यह हुसैन बिन फज़ल का क़ौल है।
पाँचवीं लाम बमानी अला है कि इंसान के ज़रर इसके किये हुए गुनाह का होगा न कि दूसरे का जो हज़रात सवाब के पहुंचने के क़ायल हैं वह यही क़यास करते हैं कि जब हज सदक़ा, वक़्फ़, दुआ, क़िराआत का सवाब पहुंच सकता है तो दूसरी इबादात का भी पहुंच सकता है अगरचे यह अहादीस ज़ईफ हैं लेकिन उनकी मजमूई हैसियत से ईसाल सबाब की असल साबित हो सकता है।
नीज़ क़दीम से मुसलमान अपने मुर्दों के लिये जमा होकर कुरआन पढ़ते रहे और किसी ने इनकार न किया इससे इजमा मुस्लिमीन भी साबित होता है। यह सबकुछ हाफ़िज़ शमशुद्दीन बिन अब्दुल वाहिद अलमुक्दसी हम्बली ने अपने एक रिसाला में ज़िक्र किया।
क़रतबी ने कहा कि शैख़ अजुद्दिन बिन सलाम ईसाले सवाब के क़ायल न थे फिर जब उनका इन्तकाल हो गया तो बाज़ लोगों ने उनको ख़्वाब में देखा तो दरियाफ़्त किया कि आप दुनिया में ईसाल सवाब के क़ायल न थे अब क्या हाल है? तो कहा कि हाँ पहले तो यही कहता था मगर अब मालूम हुआ कि खुदा के फज़लो करम से सवाब पहुंचता है और अब मैंने रूजू कर लिया है।
क़ब्र पर कुरआन पढ़ने के बारे में हमारे असहाब ने जवाज़ का क़ौल लिया है। ज़ाफ़ानी ने कहा मैंने ईमाम शाफ्यी रहमतुल्लाहि अलैहि से दरियाफ़्त किया कि क़ब्र के पास कुरआन पढ़ना कैसा है? तो आपने फरमाया हर्ज नहीं।
नूदी रहमतुल्लाह ने शरह मुहज़्ज़ब में फरमाया कि ज़्यारत करने वाले के लिये मुस्तहक है कि वह ज़्यारत के बाद कुरआन पढ़ें और दुआ करे इस पर ईमाम शाफई की तसरीह भी है और उनके असहाब भी इस पर मुत्तफिक़ हैं और दूसरे मक़ाम पर फरमाते हैं कि अगर कुरआन ख़तम करें तो. अफज़ल है।क़ब्र में नेक लोगों के मुक़ामात। Kabr mein Nek logon ke mokamaat.
ख़िलाल ने जामय में शोअबी से रिवायत की कि जब अंसार का कोई मर जाता तो वह उसकी क़ब्र पर आते और कुरआन पढ़ते । अबू मुहम्मद समरकन्दी ने सूरह एख्लास के फज़ायल में ज़िक्र किया कि जिसने कब्रिस्तान से गुज़रते हुए ग्यारह मर्तबा सूरह अख़्लास पढ़ी और उसका सवाब मुर्दों को बख़्श दिया तो मुर्दो की तादाद के मोताबिक़ उसे अज्र मिलेगा।
अबुल क़ासिम सआद बिन अली ज़नजानी ने अपने फवायद में अबू हुरैरह रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया कि नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया जो क़ब्रिस्तान से गुज़रा और उसने सूरह फातिहा अख़्लास और अलहाको मुत्तका सोरो पढ़ी फिर यह दुआ मांगी कि ऐ अल्लाह! मैंने जो कुरआन पढ़ा है इसका सवाब मोमिन मर्द और औरत दोनों को देना तो वह क़ब्र वाले क़यामत के दिन उसकी सिफारिश करेंगे।
अब्दुल अज़ीज़ जो खिलाल के साथी थे उन्होंने रिवायत किया कि हज़रत अनस रजियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जिसने क़ब्रिस्तान में ” सूरह यासीन” पढ़ी तो अल्लाह तआला उसकी बरकात से मुर्दों के अज़ाब में तख़फीफ फरमा देगा और पढ़ने वाले को मुर्दों की तादाद के बराबर सवाब मिलेगा।
क़रतबी कहते हैं कि यह हदीस कि अपने मुर्दों के पास यासीन पढ़ो, दो अहतमाल रखती है एक तो यह कि मरते वक़्त और दूसरा यह कि क़ब्र पर। पहला क़ौल जमहूर का है और दूसरा अब्दुल वाहिद मुक़दसी का है और हमारे उल्माए मोत्ताख़िरीन में से मुहिब तिब्री ने इसको आम रखा गज़ाली ने अहियाअ में और अब्दुल हक़ ने अहमद बिना हम्बल से रिवायत करते हुए आक़बत में बयान किया कि जब तुम क़ब्रिस्तान में दाखिल हो तो सूरह फातिहा, माउज़तैन और अख़्लास पढ़ो और उसका सवाब अहले क़ब्र को पहुंचा दो।
क़रतबी ने कहा कि एक क़ौल यह है कि पढ़ने का सवाब पढ़ने वाले को है और मैय्यित को सुनने का सवाब है। इसीलिये तो नस कुरआनी के बमोजिब कुरआन के सुनने वाले पर रहम होता है क़रतबी फरमाते हैं कि खुदा के करम से कुछ बयीद नहीं कि वह पढ़ने और सुनने दोनों का सवाब मुर्दे को पहुंचा दे हनफियों के फ्तावा क़ाज़ी खान में है कि जो मैय्यित को मानूस करना चाहे तो वह क़ब्र के पास कुरआन पढ़े वरना जहाँ चाहे पढ़े क्योंकि खुदा हर जगह की क़िराअत सुनने वाला है।
हिकायत :-
बयान किया जाता है कि बनू हज़रमी के बुजुर्गों में एक बुजुर्ग शख़्स बसरा में रहता था उसका एक भतीजा था जो फाहशह औरतों की सोहबत में रहता था। बूढ़ा हमेशा अपने इस भतीजे को नसीहत करता था ।
इत्तफाक़न वह लड़का मर गया। जब उसको क़ब्र में उतार दिया गया तो कुछ शुबह हुआ। चुनांचि एक ईंट सरका कर अन्दर देखा गया तो मालूम हुआ कि उसकी क़ब्र बसरा के घोड़ दौड़ के मैदान से भी ज़्यादा वसी है और वह दरम्यान में खड़ा है फिर ईंट को वापिस लगा दिया गया और घर आकर उसकी बीवी से उसके आमाल के बारे में दरियाफ़्त किया गया तो उसने कहा कि जब मोअज़्ज़िन की शहादत को सुनता था तो कहता था कि “जिसकी तू गवाही देता है उसकी गवाही मैं भी देता हूँ” और दूसरों से भी कहता था कि यही कहा करो। (इब्न अबीअददुनिया)
हिकायत :-
एक बुजुर्ग कहते हैं कि मैंने हक़ तआला शान्हू से दुआ कि कि मुझे क़ब्रिस्तान वालों का हाल दिखा दे। मैंने एक रात को देखा जैसे क़यामत क़ायम हो गई और लोग अपनी क़ब्रों से निकलने लगे। उनको मैंने देखा कि कोई तो सुन्दस पर जो एक ख़ास आला क़िस्म का रेशम है सो रहा है कोई रेशम पर है कोई ऊँचे ऊँचे तख़्त पर है। कोई फूलों पर है कोई हंस रहा है कोई रो रहा है। मैंने कहा या अल्लाह ! अगर यह सब एक ही हाल में होते तो कैसा अच्छा था। एक शख़्स ने इन मुर्दों में से कहा कि यह आमाल के तफावुत की वजह से है।
सुन्दस वाले तो अच्छी आदतों वाले हैं और रेशम वाले शोहदा हैं और फूलों वाले कसरत से रोज़ा रखने वाले हैं और रोने वाले गुनहगार हैं और आला मरातिब वाले यह ग़ालिबन ऊँचे तख़्त वाले हैं वह लोग हैं जो अल्लाह तआला शान्हू की वजह से आपस में मुहब्बत रखते थे।
अल्लाह रब्बुल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे, हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक़ आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे ज़िन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे, आमीन ।
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क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए । आमीन ।
खुदा हाफिज…