
कुर्बानी कई क़िस्म की है।
1. ग़नी और फ़क़ीर दोनों पर वाजिब,
2. फ़क़ीर पर वाजिब हो ग़नी पर वाजिब ना हो,
3. ग़नी पर वाजिब हो फ़क़ीर पर वाजिब ना हो।
दोनों पर वाजिब हो उस की सूरत ये है कि कुर्बानी की मन्नत मानी ये कहा कि अल्लाह आला के लिए मुझ पर बकरी या गाय की कुर्बानी करना है या उस बकरी या उस गाय को कुर्बानी करना है।
फ़क़ीर पर वाजिब हो ग़नी पर ना हो उस की सूरत ये है कि फ़क़ीर ने कुर्बानी के लिए जानवर ख़रीदा उस पर उस जानवर की कुर्बानी वाजिब है और ग़नी अगर खरीदता तो उस ख़रीदने से कुर्बानी उस पर वाजिब ना होती।
ग़नी पर वाजिब हो फ़क़ीर पर वाजिब ना हो उस की सूरत ये है कि कुर्बानी का वजुब ना ख़रीदने से हो, ना मन्नत मानने से ब्लकि ख़ुदा ने जो उसे ज़िन्दा रखा है उस के शुक्रिया में और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत के इहया (सुन्नत ए इब्राहीमी को क़ायम रखने के लिए) में जो कुर्बानी वाजिब है वो सिर्फ़ ग़नी पर है।
(1) मुसाफ़िर पर कुर्बानी वाजिब नहीं अगर मुसाफ़िर ने कुर्बानी की ये नफ़्ल है और फ़क़ीर ने अगर ना मन्नत मानी हो ना कुर्बानी की नियत से जानवर खरीदा हो उस का कुर्बानी करना भी नफ़्ल है।
(2) बकरी का मालिक था और उस की कुर्बानी की नियत कर ली या खरीदने के वक़्त कुर्बानी की नियत ना थी बाद में नियत कर ली तो इस नियत से कुर्बानी वाजिब नहीं होगी।
कुर्बानी वाजिब होने के शराइत ये हैं :-
(1) इस्लाम :- यानी गैर मुस्लिम पर कुर्बानी वाजिब नहीं।
(2) इक़ामत :- यानी मुक़ीम होना, मुसाफ़िर पर वाजिब नहीं।
(3) तवन्गरी :- यानी मालिक ए निसाब होना यहां मालदारी से मुराद वही है जिस से सदक़ा व फ़ित्र वाजिब होता है, वो मुराद नहीं जिस से ज़कात वाजिब होती है।
(4) हुरियत :- यानी आज़ाद होना जो आज़ाद ना हो उस पर कुर्बानी वाजिब नहीं कि गुलाम के पास माल ही नहीं लिहाज़ा इबादते मालिया उस पर वाजिब नहीं।
मर्द होना इस के लिए शर्त नहीं। औरतों पर वाजिब होती है जिस तरह मर्दों पर वाजिब होती है, इस के लिए बुलूग (बालिग होना) शर्त है या नहीं इस में इख़्तिलाफ़ है और नाबालिग पर वाजिब है तो आया खुद उस के माल से कुर्बानी की जाएगी या उस का बाप अपने माल से कुर्बानी करेगा।
ये है कि ना खुद नाबालिग़ पर वाजिब है और ना उस की तरफ़ से उस के बाप पर वाजिब है और इसी पर फ़तवा है।
मुसाफ़िर पर अगरचे वाजिब नहीं मगर नफ़्ल के तौर पर करे तो कर सकता है सवाब पाएगा। हज करने वाले जो मुसाफ़िर हों उन पर कुर्बानी वाजिब नहीं और मुक़ीम हों तो वाजिब है जैसा कि मक्का के रहने वाले हज करें तो चूंकि ये मुसाफ़िर नहीं उन पर वाजिब होगी।
शराइत का पूरे वक़्त में पाया जाना ज़रूरी नहीं बल्कि कुर्बानी के लिए जो वक़्त मुकर्रर है उस के किसी हिस्सा में शराइत का पाया जाना वजुब के लिए काफ़ी है मसलन एक शख़्स इब्तेदाए वक़्त कुर्बानी में काफ़िर था फिर मुसलमान हो गया और अभी कुर्बानी का वक़्त बाक़ी है उस पर कुर्बानी वाजिब है जबकि दुसरे शराइत भी पाए जाएं उसी तरह अगर गुलाम था और आज़ाद हो गया उसके लिए भी यही हुक्म है।
यूँही अव्वल वक़्त में मुसाफ़िर था और असनाए वक़्त में मुक़ीम हो गया उस पर भी कुर्बानी वाजिब हो गई या फ़क़ीर था और वक़्त के अन्दर मालदार हो गया उस पर भी कुर्बानी वाजिब है।
कुर्बानी वाजिब होने का सबब वक़्त है जब वो वक़्त आया और शराइते वजुब पाए गए कुर्बानी वाजिब हो गई और उसका रुक्न उन मख़सूस जानवरों में किसी को कुर्बानी की नियत से ज़बह करना है। कुर्बानी की नियत से दुसरे जानवर मसलन मुर्गा को ज़बह करना नाजायज़ है।
जो शख़्स दो सौ (200) दिरहम या बीस (20) दिनार का मालिक हो या हाजत के सिवा किसी ऐसी चीज़ का मालिक हो जिसकी क़ीमत दो सौ (200) दिरहम हो वो ग़नी है उस पर कुर्बानी वाजिब है। हाजत से मुराद रहने का मकान और ख़ानादारी के सामान जिनकी हाजत हो और सवारी का जानवर और खादिम और पहनने के कपड़े उनके सिवा जो चीजें हों वो हाजत से ज़ायद हैं।
उस शख़्स पर दीन है और उसके अमवाल से दीन की मिक़दार मुजरा (कटौती की जाए) की जाए तो निसाब नहीं बाक़ी रहती उस पर कुर्बानी वाजिब नहीं और अगर उसका माल यहाँ मौजूद नहीं है और अय्याम ए कुर्बानी (10,11,12 ज़िलहिज्ज) गुज़रने के बाद वो माल उसे वसूल होगा तो कुर्बानी वाजिब नहीं।
एक शख़्स के पास दो सौ (200) दिरहम थे साल पूरा हुआ और उनमें से पाँच (5) दिरहम ज़कात में दिए एक सौ पन्चानवे (195) बाक़ी रहे अब कुर्बानी का दिन आया तो कुर्बानी वाजिब है और अगर अपने ज़रूरियात में पाँच (5) दिरहम खर्च करता तो कुर्बानी वाजिब न होती।कुर्बानी का बयान और हदीस शरीफ़। Qurbani Ka bayan aur Hadees Sharif.
मालिक ए निसाब ने कुर्बानी के लिए बकरी खरीदी थी वो गुम हो गई और उस शख़्स का माल निसाब से कम हो गया अब कुर्बानी का दिन आया तो उस पर ये ज़रूरी नहीं कि दुसरा जानवर ख़रीद कर कुर्बानी करे और अगर वो बकरी कुर्बानी ही के दिनों में मिल गई और ये शख़्स अब भी मालिक ए निसाब नहीं है तो उस पर उस बकरी की कुर्बानी वाजिब नहीं।
औरत का महर शौहर के ज़िम्मे बाक़ी है और शौहर मालदार है तो उस महर की वजह से औरत को मालिक निसाब नहीं माना जाएगा अगरचे महर ए मुअज्जल हो और अगर औरत के पास इसके सिवा बक़दरे निसाब माल नहीं है तो औरत पर कुर्बानी वाजिब नहीं होगी।
किसी के पास दो सौ (200) दिरहम की क़ीमत का मसहफ़ शरीफ़ (कुरआन मजीद) है अगर वह उसे देख कर अच्छी तरह तिलावत कर सकता है तो उस पर कुर्बानी वाजिब नहीं चाहे उसमें तिलावत करता हो या न करता हो और अगर अच्छी तरह उसे देख कर तिलावत न कर सकता हो तो वाजिब है। किताबों का भी यही हुक्म है कि उस के काम की हैं तो कुर्बानी वाजिब वरना नहीं है।
एक मकान जाड़े के लिए और एक गर्मी के लिए ये हाजत में दाखिल है उनके अलावा उसके पास तीसरा मकान हो जो हाजत से ज़ायद है अगर ये दो सौ (200) दिरहम का है तो कुर्बानी वाजिब है उसी तरह गर्मी जाड़े के बिछौने हाजत में दाखिल हैं और तीसरा बिछौना जो हाजत से ज़ायद है उसका ऐतबार होगा।
ग़ाज़ी के लिए दो घोड़े हाजत में हैं तीसरा हाजत से ज़ायद है। असलहा ग़ाज़ी की हाजत में दाखिल हैं हाँ अगर हर क़िस्म के दो हथियार हों तो दुसरे को हाजत से ज़ायद क़रार दिया जाएगा।
गाँव के ज़मीनदार के पास एक घोड़ा हाजत में दाखिल है और दो हों तो दुसरे को ज़ायद माना जाएगा। घर में पहनने के कपड़े और काम-काज के वक़्त पहनने के कपड़े और जुम्मा व ईद और दुसरे मौक़ों पर पहन कर जाने के कपड़े ये सब हाजत में दाखिल हैं और उन तीन (3) के सिवा चौथा (4) जोड़ा अगर दो सौ (200) दिरहम का है तो कुर्बानी वाजिब है।
बालिग लड़कों या बीबी की तरफ़ से कुर्बानी करना चाहता है तो उनसे इजाज़त हासिल करे बगैर उनके कहे अगर कर दी तो उनकी तरफ़ से वाजिब अदा न हुआ और नाबालिग की तरफ़ से अगरचे वाजिब नहीं है मगर कर देना बेहतर है।
कुर्बानी का हुक्म यह है कि उसके ज़िम्मा जो कुर्बानी वाजिब है कर लेने से बरीओ ज़िम्मा हो गया और अच्छी नियत से की है रिया वगैरह की मदाख्लत नहीं तो अल्लाह के फज़्ल से उम्मीद है कि आख़िरत में इसका सवाब मिले।
यह ज़रूरी नहीं कि दसवीं (10) ही को कुर्बानी कर डाले इसके लिए गुंजाइश है कि पूरे वक़्त में जब चाहे करे लिहाज़ा अगर इब्तेदा ए वक़्त में उसका अहल न था वुजूब के शराइत नहीं पाए जाते थे और आखिर वक़्त में अहल हो गया यानि वुजूब के शराइत पाए गए तो उस पर वाजिब हो गई और अगर इब्तेदा ए वक़्त में वाजिब थी और अभी की नहीं और आख़िर वड़ में शराइत जाते रहे तो वाजिब न रही।
एक शख़्स फ़क़ीर था मगर उसने कुर्बानी कर डाली उसके बाद अभी वक़्त कुर्बानी का बाक़ी था कि ग़नी हो गया तो उसको फिर कुर्बानी करनी चाहिए कि पहले जो की थी वो वाजिब न थी और अब वाजिब है बाज़ ओलमा ने फ़रमाया कि वो पहली कुर्बानी काफ़ी है और अगर बावजूद मालिक ए निसाब होने के उसने कुर्बानी न की और वक़्त ख़त्म होने के बाद फ़क़ीर हो गया तो उस पर बकरी की क़ीमत का सदक़ा करना वाजिब है यानी वक़्त गुज़रने के बाद कुर्बानी साक़ित नहीं होगी। और अगर मालिक ए निसाब बगैर कुर्बानी किए हुए उन्हीं दिनों में मर गया तो उसकी कुर्बानी साक़ित हो गई।
कुर्बानी के वक़्त में क़ुर्बानी करना ही लाज़िम है कोई दुसरी चीज़ उसके क़ायम मक़ाम नहीं हो सकती मसलन बजाए कुर्बानी उसने बकरी या उसकी क़ीमत सदक़ा कर दी ये ना काफ़ी है उसमें नियाबत हो सकती है यानी खुद करना ज़रूरी नहीं बल्कि दुसरे को इजाज़त दे दी उसने कर दी ये हो सकता है।
जब कुर्बानी के शराइत मज़कुरह पाए जाएं तो बकरी का ज़बह करना या ऊँट या गाय का सातवाँ (7) हिस्सा वाजिब है। सातवें (7) हिस्सा से कम नहीं हो सकता बल्कि ऊँट या गाय के शुरका में अगर किसी शरीक का सातवें (7) हिस्सा से कम है तो किसी की कुर्बानी नहीं हुई यानी जिसका सातवाँ (7) हिस्सा या उससे ज़्यादा है उसकी भी कुर्बानी नहीं हुई।
गाय या ऊँट में सातवें (7) हिस्सा से ज़्यादा की कुर्बानी हो सकती है। मसलन गाय को छः (6) या पाँच (5) या चार (4) शख़्सों की तरफ़ से कुर्बानी करें हो सकता है और ये ज़रूरी नहीं कि सब शुरका के हिस्से बराबर हों बल्कि कमो बेश भी हो सकते हैं हां ये ज़रूरी है कि जिसका हिस्सा कम है तो सातवीं हिस्सा से कम न हो।
सात (7) शख़्सों ने पाँच (5) गायों की कुर्बानी की ये जायज़ है कि हर गाय में हर शख़्स का सातवां (7) हिस्सा हुआ और आठ (8) शख़्सों ने पाँच (5) या छः (6) गायों में बहिस्सा मसावी शिरकत की ये नाजायज़ है कि हर गाय में हर एक का सातवें (7) हिस्सा से कम है।
सात (7) बकरियों की सात (7) शख़्सों ने शरीक होकर कुर्बानी की यानी हर एक का हर बकरी में सातवां हिस्सा है इस्तेहसान्न कुर्बानी हो जाएगी यानी हर एक की एक-एक बकरी पूरी क़रार दी जाएगी। यूँही दो (2) शख़्सों ने दो (2) बकरियों में शिरकत करके कुर्बानी की तो बतौर इस्तेहसान हर एक की कुर्बानी हो जाएगी।
शिरकत में गाय की कुर्बानी हुई तो ज़रूरी है कि गोश्त वज़न करके तक़सीम किया जाए अन्दाज़ा से तक़सीम न हो क्योंकि हो सकता है कि किसी को ज़ायदा या कम मिले और ये नाजायज़ है यहाँ ये ख़्याल न किया जाए कि कमो बेश होगा तो हर एक उसको दुसरे के लिए जायज़ कर देगा कह देगा कि अगर किसी को जायद पहुंच गया है तो माफ़ किया कि यहां अदमे जवाज़े हक़ शरअ है और उनको उसके माफ़ करने का हक़ नहीं।
कुर्बानी का वक़्त दसवीं (10) ज़िलहिज्ज के तुलूअ सुबहे सादिक़ से बारहवीं (12) के गुरुबे आफ़ताब तक है यानी तीन (3) दिन, दो (2) रातें और उन दिनों को अय्यामें नहर कहते हैं और ग्यारह (11) से तेरह (13) तक तीन (3) दिनों को अय्यामें तशरीक़ कहते हैं लिहाज़ा बीच के दो (2) दिन अय्यामें नहर व अय्यामें तशरीक़ दोनों हैं और पहला दिन यानी दसवीं ज़िलहिज्ज सिर्फ़ यौमे नहर है और पिछला दिन यानी तेरहवीं ज़िलहिज्ज सिर्फ़ यौमे तशरीक़ है।
दसवीं (10) के बाद की दोनों रातें अय्यामें नहर में दाखिल हैं उन में भी कुर्बानी हो सकती है मगर रात में ज़बह करना मकरुह है।
पहला दिन यानी दसवीं तारीख सब में अफज़ल है फ़िर ग्यारहवीं (11) और पिछला दिन यानी बारहवीं (12) सब में कम दर्जा है और अगर तारीखों में शक हो यानी तीस (30) का चाँद माना गया है और उनतीस (29) के होने का भी शुब्हा है मसलन गुमान था कि उनतीस (29) का चाँद होगा मगर अब्र (बादल) वगैरह की वजह से ना दिखा या शहादतें गुज़रें मगर किसी वजह से क़बुल ना हुए ऐसी हालत में दसवीं (10) के मुतल्लिक़ ये शुब्हा (शक) है कि शायद आज ग्यारहवीं (11) हो तो बेहतर ये है कि कुर्बानी को बारहवीं (12) तक मुअख़र ना करे यानी बारहवीं (12) से पहले कर डाले क्योंकि बारहवीं (12) के मुतल्लिक़ तेरहवीं (13) तारीख़ होने का शुब्हा होगा तो ये शुब्हा होगा कि वक़्त से बाद में हुई और इस सूरत में अगर बारहवीं (12) को कुर्बानी की जिस के मुतल्लिक़ तेरहवीं (13) होने का शुब्हा है तो बेहतर ये है कि सारा गोश्त सदका कर डाले ब्लकि ज़बह की हुई बकरी और ज़िन्दा बकरी में क़ीमत का तफ़ाउत हो कि ज़िन्दा की क़ीमत कुछ ज़ायद हो तो उस ज़्यादती को भी सदक़ा कर दे।
अय्यामें नहर में कुर्बानी करना उतनी क़ीमत के सदक़ा करने से अफज़ल है क्योंकि कुर्बानी वाजिब है या सुन्नत और सदक़ा करना नफ़्ली इबादत है लिहाज़ा कुर्बानी अफज़ल हुई। और वजुब की सूरत में बगैर कुर्बानी किए वाजिब अदा नहीं हो सकता।
शहर में कुर्बानी की जाए तो शर्त ये है कि नमाज़ हो चुके लिहाज़ा नमाज़ से पहले शहर में कुर्बानी नहीं हो सकती और देहात में चूंकि नमाज़ ए ईद नहीं है यहां तुलूअ फ़ज्र के बाद से ही कुर्बानी हो सकती है और देहात में बेहतर ये है कि बाद तुलूअ ए आफ़ताब कुर्बानी की जाए और शहर में बेहतर ये है कि ईद का ख़ुतबा हो चुकने के बाद कुर्बानी की जाए। यानी नमाज़ हो चुकी है और अभी खुतबा नहीं हुआ है उस सूरत में कुर्बानी हो जाएगी मगर ऐसा करना मकरुह है।
ये जो शहर व देहात का फ़र्क़ बताया गया ये मक़ामे कुर्बानी के लिहाज़ से है कुर्बानी करने वाले के एतबार से नहीं यानी देहात में कुर्बानी हो तो वो वक़्त है अगरचे कुर्बानी करने वाला शहर में हो तो नमाज़ के बाद हो अगरचे जिस की तरफ़ से कुर्बानी है वो देहात में हो लिहाज़ा शहरी आदमी अगर ये चाहता है कि सुबह ही नमाज़ से पहले कुर्बानी हो जाए तो जानवर देहात में भेज दे।ज़कात ना देने वालों को अज़ाबे क़ब्र। Zakat na dene walon ko azabe qabr.
अगर शहर में मुतअदद जगह ईद की नमाज़ होती हो तो पहली जगह नमाज़ हो चुकने के बाद कुर्बानी जायज़ है यानी ये ज़रूरी नहीं कि ईदगाह में नमाज़ हो जाए जब ही कुर्बानी की जाए ब्लकि किसी मस्जिद में हो गई और ईदगाह में ना हुई जब भी हो सकती है।
दसवीं (10) को अगर ईद की नमाज़ नहीं हुई तो कुर्बानी के लिए ये ज़रूरी है कि वक़्ते नमाज़ जाता रहे यानी ज़व्वाल का वक़्त आ जाए अब कुर्बानी हो सकती है और दूसरे या तीसरे दिन नमाज़ ए ईद से क़बल हो सकती है।
मिना में चुंकि ईद की नमाज़ नहीं होती लिहाज़ा वहाँ जो कुर्बानी करना चाहे तुलूअ ए फ़ज्र के बाद से कर सकता है उस के लिए वही हुक्म है जो देहात का है किसी शहर में अगर फ़ितना की वजह से नमाज़ ए ईद ना हो तो वहाँ दसवीं (10) की तुलूअ फ़ज्र के बाद कुर्बानी हो सकती है।
इमाम अभी नमाज़ ही में है और किसी ने जानवर ज़बह कर लिया अगरचे इमाम क़अदह में हो और बक़दरे तशहुद बैठ चुका हो मगर अभी सलाम ना फैरा हो तो कुर्बानी नहीं हुई और अगर इमाम ने एक तरफ सलाम फेर लिया है दूसरी तरफ़ बाक़ी था कि उसने ज़बह कर दिया कुर्बानी हो गई और बेहतर ये है कि खुतबा से जब इमाम फारिग हो जाए उस वक़्त कुर्बानी की जाए।
इमाम ने नमाज़ पढ़ ली उसके बाद कुर्बानी हुई फिर मालूम हुआ कि इमाम ने बगैर वजू नमाज़ पढ़ा दी तो नमाज़ का आइदह किया जाए कुर्बानी के आइदह की ज़रूरत नहीं।
ये गुमान था कि आज अरफ़ा (9 वीं ज़िलहिज्ज) का दिन है और किसी ने ज़व्वाले आफ़ताब के बाद कुर्बानी कर ली फिर मालूम हुआ कि अरफ़ा का दिन न था बल्कि दसवीं (10) तारीख थी तो कुर्बानी जायज़ हो गई। यूँही अगर दसवीं (10) को नमाज़ ए ईद से पहले कुर्बानी कर ली फिर मालूम हुआ कि वो दसवीं (10) न थी बल्कि ग्यारहवीं (11) थी तो उसकी भी कुर्बानी जायज़ हो गई।
नौवीं (9) के मुतल्लिक़ कुछ लोगों ने गवाही दी कि दसवीं (10) है इस बिना पर उसी रोज़ नमाज़ पढ़ कर कुर्बानी की फिर मालूम हुआ कि गवाही ग़लत थी वो नौवीं (9) तारीख थी तो नमाज़ भी हो गई और कुर्बानी भी।
अय्यामें नहर गुज़र गए और जिस पर कुर्बानी वाजिब थी उसने नहीं की है तो कुर्बानी फ़ौत हो गई अब नहीं हो सकती फिर अगर उसने कुर्बानी का जानवर मुअय्यन कर रखा है मसलन मुअय्यन जानवर के कुर्बानी की मन्नत मान ली है वह शख़्स गनी हो या फ़क़ीर बहर सूरत उसी मुअय्यन जानवर को ज़िन्दा सदक़ा करे और अगर ज़बह कर डाला तो सारा गोश्त सदक़ा करे उसमें से कुछ न खाए और अगर कुछ खा लिया है तो जितना खाया है उसकी क़ीमत सदका करे और अगर ज़बह किए हुए जानवर की क़ीमत ज़िन्दा जानवर से कुछ कम है तो जितनी कमी है उसे भी सदक़ा करे।
और फ़क़ीर ने कुर्बानी की नियत से जानवर खरीदा है और कुर्बानी के दिन निकल गए चूँकि उस पर भी उसी मुअय्यन जानवर की कुर्बानी वाजिब है लिहाज़ा उस जानवर को ज़िन्दा सदक़ा कर दे और अगर ज़बह कर डाला तो वही हुक्म है जो मन्नत में मजकुर हुआ। ये हुक्म उसी सूरत में है कि कुर्बानी ही के लिए खरीदा हो और अगर उसके पास पहले से कोई जानवर था और उसने उसके कुर्बानी करने की नियत कर ली या खरीदने के बाद कुर्बानी की नियत की तो उस पर कुर्बानी वाजिब न हुई।
और ग़नी ने कुर्बानी के लिए जानवर खरीद लिया है तो वही जानवर सदक़ा कर दे और ज़बह कर डाला तो वही हुक्म है, जो मजकुर हुआ और खरीदा न हो तो बकरी की क़ीमत सदक़ा करे।
कुर्बानी के दिन गुज़र गए और उसने कुर्बानी नहीं की और जानवर या उसकी क़ीमत को सदक़ा भी नहीं किया यहां तक कि दूसरी बक़रईद आ गई अब ये चाहता है कि साल गुज़िशता की कुर्बानी की क़ज़ा इस साल कर ले ये नहीं हो सकता ब्लकि अब भी वही हुक्म है कि जानवर या उसकी क़ीमत सदक़ा करे।
जिस जानवर की कुर्बानी वाजिब थी अय्यामें नहर गुज़रने के बाद उसे बेच डाला तो समन का सदक़ा करना वाजिब है।
किसी शख़्स ने ये वसीयत की के उसकी तरफ़ से कुर्बानी कर दी जाए और ये नहीं बताया कि गाय या बकरी किस जानवर की कुर्बानी की जाए और ना क़ीमत बयान की के इतने का जानवर ख़रीद कर कुर्बानी की जाए ये वसीयत जायज़ है और बकरी कुर्बान कर देने से वसीयत पूरी होगी और अगर किसी को वकील किया कि मेरी तरफ़ से कुर्बानी कर देना और गाय या बकरी का ताअइन ना किया और क़ीमत भी बयान नहीं की तो वकील सही नहीं।
कुर्बानी की मन्नत मानी और ये मुअय्यन नहीं किया कि गाय की कुर्बानी करेगा या बकरी की तो मन्नत सही है बकरी की कुर्बानी कर देना काफ़ी है और अगर बकरी की कुर्बानी की मन्नत मानी तो ऊंट या गाय कुर्बानी कर देने से भी मन्नत पूरी हो जाएगी मन्नत की कुर्बानी में से कुछ ना खाए ब्लकि सारा गोश्त वगैरह सदक़ा कर दे और कुछ खा लिया तो जितना खाया उसकी क़ीमत सदक़ा करे।
अल्लाह रब्बुल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे, हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक़ आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे ज़िन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे, आमीन ।
इस बयान को अपने दोस्तों और जानने वालों को शेयर करें। ताकि दूसरों को भी आपकी जात व माल से फायदा हो और यह आपके लिये सदका-ए-जारिया भी हो जाये।
क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए । आमीन ।
खुदा हाफिज…