हदीस पाक में आता है कि जिस माँ ने या बाप ने बच्चे की तरबियत ऐसी की कि उसने बोलना शुरू किया और उसने सबसे पहले अल्लाह का नाम ज़बान से निकाला तो अल्लाह तआला उसके माँ-बाप के सब पिछले गुनाहों को माफ फरमा देते हैं।
अब यह कितना आसान काम है, लेकिन बच्चियाँ इस तरफ तवज्जोह नहीं देतीं। कई बच्चियों को तो पता ही नहीं होता, बच्चों के सामने अम्मी और अब्बू का लफ़्ज़ पहले न कहें, हमेशा अल्लाह का लफ़्ज़ बार-बार कहें। जब आप अल्लाह का लफ़्ज़ कहेंगी और जो भी उठाये तो उसको हिदायत करें कि वह बच्चे के सामने सिर्फ अल्लाह का नाम ले। जब बार-बार अल्लाह-अल्लाह का लफ़्ज़ लेंगी तो बच्चा भी अल्लाह ही का लफ़्ज़ बोलेगा।
उलेमा ने लिखा है कि हरकात (ज़बर, ज़ेर, पेश) तीन होती हैं-एक ‘ज़बर’ एक ‘ज़ेर’ और एक ‘पेश’। इसमें सबसे आसान चीज़ जो बोली जाती है उसको ज़बर कहते हैं। यह इन तीनों में सबसे ज़्यादा अफज़ल और बेहतर है। इसलिये पेश और ज़ेर का लफ़्ज़ बोलना बच्चे के लिये मुश्किल होता है, ज़बर का लफ़्ज़ आसान होता है।
इससे मालूम होता है कि अगर अल्लाह का लफ़्ज़ लिया जायेगा तो यह बच्चे के लिये सबसे आसान लफ़्ज़ है जो बच्चा सीख सकता है। और इस पर इनसान को अल्लाह की तरफ से इनाम भी मिलेगा कि बच्चे ने अल्लाह का नाम पुकारा माँ-बाप के पिछले गुनाहों की मग़फिरत हो गई।
तो बच्चे के सामने कसरत के साथ अल्लाह का नाम लेती रहें और अगर सुलाना पड़े तो उस वक़्त लोरी भी उसको ऐसी दें कि जो प्यार वाली हो, नेकी वाली हो।
पिछले ज़माने की माँएँ अपने बच्चों को ऐसी लोरी देती थींः
हंस्बी रब्बी जल्लल्लाह। मा फी कल्बी गैरूल्लाह। नूरे मुहम्मद सल्लल्लाह। ला इला-ह इल्लल्लाह ।
यह ला इला-ह इल्लल्लाह की ज़रबें लगती थीं तो बच्चे के दिल पर उसके असरात होते थे। माँ खुद भी नेक होती थीं। उसके दो फायदे थे एक तो माँ का अपना वक़्त ज़िक्र में गुज़रा और दूसरा बच्चे को अल्लाह का नाम सुनने का मौका मिला। ला इला-ह इल्लल्लाह की ज़रबों के उसके दिल पर असरात हों और अगर उसके अलावा भी और कोई लोरी कहे तो वह भी नेकी के पैग़ाम वाली हो। नेकी की बातों वाली हो।
हमारी उम्र इस वक़्त पचास हो गई लेकिन बचपन के अन्दर जब माँ लोरी देती थी तो जो अलफाज़ वह कहा करती थी, बहन वे अलफाज़ सुनाती थी कि इन अलफाज़ से लोरी देते थे। अब अजीब बात है कि वे अलफाज़ दिल पर ऐसे नक़्श हो गये कि पचास साल की उम्र में भी यूँ महसूस होता है कि लोरी के अलफाज़ कानों में गूँज रहे हैं।
माँ कहती थी “अल्लाह अल्लाह लोरी, दूध भरी कटोरी, जुलफी पियेगा, नेक बनकर जियेगा” शायद यह माँ की वे दुआयें हैं अल्लाह ने नेकों के कदमों में बैठने की जगह अता फरमा दी।
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आज से पचास साल पहले, आधी सदी गुज़र गई मगर वह नेक बनकर जिएगा के अलफाज़ आज भी ज़ेहन के अन्दर अपने असरात रखते हैं। इसलिये माँ को चाहिये कि अगर लोरी भी दे तो ऐसी हो कि जिसमें नेकी का पैग़ाम बच्चे को पहुँच रहा हो।
अल्लाह से एक दिली दुआ…
ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।
प्यारे भाइयों और बहनों :-
अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।
क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
जज़ाकल्लाह ख़ैर….
