बच्चा, बच्चा ही होता है। जब तक वह खेले-कूदेगा नहीं उसका जिस्मानी विकास और बढ़ोतरी कैसे होगी। और बच्चे से वही कुछ उम्मीद और अपेक्षा रखें कि जो बच्चे से रख सकते हैं। बड़ों जैसी उम्मीद आप उससे मत रखिये।
बच्चे कच्चे होते हैं, इसलिये बातें भी जल्दी भूल जाते हैं। इसलिये उनकी छोटी-छोटी बातों से मासूम बातों से कभी-कभी दरगुज़र भी कर दिया करें। अन्जान बन जाया करें। जैसा कि आपने देखा ही नहीं। तो इस तरह बच्चे की तरबियत अच्छी हो जाती है।
इमाम शाफई रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि के बारे में आता है कि तेरह साल की उम्र में उन्होंने दीनी उलूम को हासिल कर लिया था और एक जगह उन्होंने कुरआन करीम का दर्स भी देना शुरू कर दिया था।
अजीब बात है कि तेरह साल की उम्र में उन्होंने कुरआन का दर्स देना शुरू कर दिया था। हमारे बुजुर्गों ने छोटी उम्र में बड़े-बड़े कमालात हासिल कर लिए।
ख़्वाजा मासूम रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने अपने वालिद हज़रत मुजद्दिद् अल्फ़े-सानी रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि से बारह साल की उम्र में ख़िलाफत पाई थी। तो पहले वक़्तों के हज़रात को बचपन से नेकी मिलती थी। माँ की गोद से उनको असरात मिलते थे इसलिये बारह पन्द्रह साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते वे बड़े उलूम हासिल कर लिया करते थे। और बड़े-बड़े कमालात हासिल कर लिया करते थे।
इमाम शाफई रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने बचपन की उम्र में दर्से-कुरआन देना शुरू कर दिया। उनके दर्से-कुरआन में कई बड़े-बूढ़े सफेद दाढ़ी वाले आकर बैठते थे। और उनके इल्मी मआरिफ (कमालात और खूबियों) पर आधारित दर्स को सुना करते थे। चुनाँचे एक बार इमाम शाफई दर्से-कुरआन दे रहे थे यानी कुरआन पाक की तफसीर बयान कर रहे थे।
दो चिड़ियाँ लड़ते-लड़ते उनके करीब आकर गिरीं। जैसे ही ये आकर गिरीं उन्होंने अपने सर से अमामा यानी पगड़ी उतारा और दोनों चिड़ियों के ऊपर रख दिया।
जब उन्होंने दर्स यानी अपनी तकरीर के दौरान यह किया तो जो बड़े-बूढ़े किस्म के लोग थे, सन्जीदा उम्र के लोग थे, उन्होंने इस चीज़ को बुरा महसूस किया कि दर्से-कुरआन के दौरान आपने यह बच्चों वाली हरकत कर दी। इमाम शाफई रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि भी आख़िर आलिम बन गये थे और उनको अल्लाह ने समझ अता फरमा दी थी।
यह भी समझ गये। चुनाँचे उन्होंने अमामा यानी पगड़ी उठाकर फिर अपने सिर पर रख लिया और हदीस सुनाई कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमायाः बच्चा बच्चा ही होता है अगरचे किसी नबी का बेटा ही क्यों न हो।
तो इस हदीस को सुनाने से जिन लोगों के दिलों में कोई बात वारिद हुई थी वह बात साफ हो गयी। तो बच्चा तो बहरहाल बच्चा ही होता है।
खूबसूरत वाक़िआ:-बेहतर है बेटी को दीन सिखाएँ।
अल्लाह से एक दिली दुआ…
ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।
प्यारे भाइयों और बहनों :-
अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।
क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
जज़ाकल्लाह ख़ैर….
