
आशूरा,अशर से मुश्तक है और अशर के मानी दस अदद के हैं। आशूरा से मुराद माहे मुहर्रम का दसवाँ दिन है बाज अहले इल्म फरमाते हैं कि उस दिन को आशूरा इसलिए कहते हैं कि उस दिन में अल्लाह तआला ने दस नबियों पर दस करामतों का इनाम फ़रमाया है।
उस दिन में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की तौबा कुबूल हुई। हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की कश्ती कोहे जूदी पर रुकी। हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को फिरऔन से नजात मिली और फिरऔन गर्क हुआ, हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की विलादत हुई और उसी दिन वह आसमान पर उठाए गए। हज़रत यूनुस अलैहिस्सलाम को मछली के पेट से खुलासी मिली और उसी दिन उनकी उम्मत का कुसूर मुआफ हुआ।
हज़रत यूसुफ अलैहिस्सलाम कुएँ से निकाले गए। हज़रत अय्यूब अलैहिस्सलाम को नौ मशहूर बीमारी से सेहत हासिल हुई। हज़रत इद्रीस अलैहिस्सलाम आसमान पर उठाए गए। हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की विलादत हुई और उसी दिन उन पर आग गुलजार हुई। हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम को मुल्क अता हुआ। अलावा अर्जी और भी इंआमात व करामात और वाकिआत उस दिन में हुए जो शारेहीन हदीस और उलमा-ए-तारीख व सियर ने नक़्ल फरमाए है।
साबित हुआ कि यौमे आशूरा वाकिया करबला से पहले भी मुकर्रम व मुअज्जम दिन समझा जाता था और हदीस शरीफ में आया है कि क़यामत भी 10 मुहर्रम बरोज जुमा यौमे आशूरा ही आएगी। (गुनियतुत्तालेबीन मुलख्खिसन)
आमाले आशूरा :-
हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रजिअल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि : रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने आशूरा (मुहर्रम) के दसर्वी दिन का रोज़ा रखने का हुक्म फरमाया। आशूर-ए-मुहर्रम के रोजे की बहुत फज़ीलत और अज्र व सवाब है। हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम का फरमान है। कि रमज़ान के बाद अफ्ज़ल रोजे अल्लाह के महीना मुहर्रम के हैं।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रजिअल्लाहु अन्हु फरमाते हैं।
कि मैंने नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को न देखा कि आप किसी दिन के रोजे को दूसरे दिनों पर फज़ीलत देकर तलाश करते हों। सिवाए यौमे आशूरा के। आशूरे के रोजे से एक साल के गुनाह मुआफ हो जाते हैं। चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं:
यौमे आशूरा का रोज़ा मैं अल्लाह के फज़्ल व करम से उम्मीद रखता हूँ कि अल्लाह उसको गुजश्ता साल के गुनाहों का कफ़्फ़ारा बना दे।
और उलमा ने लिखा है कि उस दिन वहशी जानवर भी रोजा रखते हैं। चूँकि उस दिन यहूद भी रोजा रखते थे इसलिए कि उस दिन उनको उनके दुश्मन जालिम फिरऔन से नजात मिली थी और हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का फरमान है कि यहूद की मुखालिफत करो इसलिए उलमा फरमाते हैं कि तन्हा दसवीं का रोजा न रखा जाए बल्कि नवीं का भी रखा जाए यानी दो रोज़े रखे जाएं ताकि यहूद के साथ मुशाबिहत न रहे और नवीं के रोज़ा के बारे में हदीस भी मौजूद है। इस तरह दोनों हदीसों पर अमल हो जाएगा।
हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि – जो मुहर्रम के पहले जुम्अतुल मुबारक का रोज़ा रखे उसके पिछले सब गुनाह बख्श दिए जाते हैं और जो मुहर्रम के तीन दिन यानी जुमेरात, जुमा, हप्तह के रोज़े रखे अल्लाह तआला उसके लिए नौ सौ साल की इबादत का सवाब लिख देता है।
(नुज़्हतुल-मजालिस स० 176/1)
उम्मुल-मुमिनीन हज़रत आइशा सिद्दीका रज़ियल्लाहु तआला अन्हा फरमाती हैं कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम ने फरमाया : जो मुहर्रम के पहले दस दिनों के रोजे रखे वह फिरदौसे आला का वारिस हो जाता है।(नुज़्हतुल-मजालिस स० 177/1)
सुलतानुल-औलिया हज़रत ख्वाजा निजामुद्दीन महबूब इलाही रहमतुल्लाहि ताअला अलैह फरमाते हैं कि शैखुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन कुतबुल-अक्ताब हज़रत बाबा फ्रीदुद्दीन मस्ऊद गंज शकर रजियल्लाहु अन्हु ने आशूरे के रोज़े की फजीलत के बारे में फरमाया -कि आशूरा के रोज़े में जंगल की हिरनियाँ भी खानदाने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की दोस्ती के सबब अपने बच्चों को दूध नहीं देतीं पस क्यों इस रोजे को छोड़ा जाए। (राहतुल-कुलूब स० 58)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया : जो आशूरे के दिन चार रकअतें पढ़े हर रकअत में सूरः फातिहा के बाद ग्यारह मरतबा कुल हुवल्लाहु अहद पढ़े अल्लाह तआला उसके पचास बरस के गुनाह मुआफ कर देता है और उसके लिए नूर का मिंबर बनाता है।(नुज़्हतुल-मजालिस स० 178/1)
और फरमाया रहमते आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम ने : जो आशूरे के दिन अपने अहल व अयाल पर उस्अत करे तआभ वगैरह की अल्लाह तआला उस पर सारा साल उस्अत फरमाता है।(बैहकी, नुज़्हतुल-मजालिस स० 178/1)
मिस्र में एक शख्स था जिसके पास एक कपड़े के सिवा कुछ न था उसने आशूरे के दिन मस्जिद में अमर बिन आस रजिअल्लाह अन्हु सुबह की नमाज़ पढ़ी वहाँ काइदा यह था कि आशूरे के दिन औरतें उस मस्जिद में दुआ करने के लिए जाया करती थीं तो एक औरत ने उस शख़्स से कहा कि लिल्लाह मुझे कुछ मेरे बाल बच्चों के लिए दो? उस शख़्स ने कहा अच्छा मेरे साथ चलो। घर में जा कर वह कपड़ा उत्तारा और दरवाजे की दराज से उस औरत को दे दिया उस औरत ने दुआ दी कि अल्लाह तुझे जन्नत के हुल्ले पहनाए।

उसी रात उस शख़्स ने ख्वाब में एक निहायत खूबसूरत हूर देखी जिसके पास एक खुशबूदार सेब था उसने सेब को तोड़ा तो उसमें एक हुल्ला पाया। उस शख्स ने उस हूर से पूछा तू कौन है? उसने कहा मैं आशूरा हूँ जन्नत में तेरी जौजा! फिर वह शख़्स जाग पड़ा और सारे घर को खुशबू से महकता पाया। वुजू करके दो रकअतें पढ़ी और दुआ की ऐ अल्लाह अगर वाकई वह जन्नत में मेरी जौजा है तो मेरी रूह कब्ज़ कर ले और मुझे उसके पास पहुँचा दे। अल्लाह ने उसकी दुआ कुबूल की और वह उसी वक्त इन्तिकाल कर गया।
इमाम अब्दुल्लाह साफई मक्की रहमतुल्लाहि ताअला अलैह नक़्ल फरमाते हैं कि शहर ‘स्य’ (तेहरान) में एक बड़ा अमीर काजी था उसके पास आशूरे के दिन एक फ़कीर आया और उसने क़ाज़ी से कहा अल्लाह आपको इज़्ज़त दे मैं एक फ़कीर अहल व अयाल वाला हूँ आपकी खिदमत में हाज़िर हुआ हूँ। इस दिन की हुर्मत व इज़्ज़त के सदका में मुझे दस मन आटा, पाँच मन गोश्त और दो दिरहम दें काज़ी ने जुहर के वक्त देने का वादा किया वह फ़कीर जुहर के वक्त आया। काजी ने कहा असर के वक्त दूँगा।
जब असर का वक्त आया तो उसने फ़कीर को टाल दिया और कुछ भी न दिया। फ़कीर शिकस्ता दिल हो कर चला। रास्ते में एक नसरानी अपने मकान के दरवाज़े में बैठा हुआ था। फ़कीर ने उस से कहा इस दिन की इज़्ज़त व हुर्मत के सदका में मुझे कुछ अता कीजिए। नसरानी ने कहा इस दिन की खुसूसियत क्या है? फ़कीर ने इस दिन की इज़्ज़त व हुर्मत ब्यान की (और बताया कि यह दिन फरज़न्दे रसूल दिल बन्द बतूल हज़रत इमाम हुसैन रजिअल्लाहु अन्हु की शहादत का दिन है नसरानी ने फकीर से कहा कि तुमने अपनी हाजत के सिलसिले में बहुत बड़े अज़ीम दिन की हुर्मत का वास्ता और कसम दी है लिहाजा अपनी हाजत ब्यान करो। फ़कीर ने वही आटे गोश्त और दिरहमों का सवाल किया।
नसरानी ने दस बोरी गन्दुम अढ़ाई मन गोश्त और बीस दिरहम देकर कहा कि यह तेरे और तेरे अयाल के लिए है और जब तक मैं जिन्दा रहूँ इस माह के इस दिन की करामत की वजह से हर साल इतना ले जाया करो। फ़कीर यह सब कुछ लेकर अपने घर चला गया। जब रात हुई और वह क़ाज़ी सोया तो उसने ख्वाब में हातिफे गैबों से सुना कि अपना सर ऊपर उठा कर देखो काज़ी ने सर उठा कर देखा तो दो महल थे। एक की दीवारें सोने चाँदी की थीं और दूसरा सुर्ख याकूत का। काज़ी ने कहा या इलाही यह दोनों महल किस के है?
खूबसूरत वाक़िआ :- हज़रत ख्वाज़ा मोइनुद्दीन चिश्ती ।
उसको कहा गया यह दोनों तेरे लिए थे अगर तू फ़कीर की हाजत पूरी कर देता। पस जब तूने उसको रद्द कर दिया तो अब यह दोनों महल फलाँ नसरानी के हो गए हैं। क़ाज़ी घबरा कर नींद से चौंक पड़ा और हाए वाए करने लगा। सुबह को नसरानी के पास आ कर कहा तूने गुजश्ता रात क्या नेकी की है? उसने वजहे सवाल पूछी। क़ाज़ी ने अपना ख्वाब बताया और कहा कि अपनी उस अच्छी नेकी जो तूने फ़कीर के साथ की है मेरे हाथ सौ हजार दिरहम के एवज बेच दे नसरानी ने कहा अगर कोई ज़मीन भर दिरहम भी दे तब भी मैं उसको न बेचूँगा यह कितना अच्छा मआमला रब्बे करीम के साथ हुआ है यह कह कर वह नसरानी कलिम-ए-शहादत पढ़ कर मुसलमान हो गया और कहा बिला शुबह यह दीन सच्चा है।(रौजुर्रियाहीन स० 151)
एक शख्स ने बाज उलमा से सुना कि अगर कोई योमे आशूरा के दिन एक दिरहम सदका करे तो अल्लाह तआला उसके बदले में उसको एक हजार दिरहम देगा उस शख़्स ने सात दिरहम सदका किए थे। एक साल के बाद फिर किसी आलिम से सुना तो कहने लगा यह सही नहीं है। मैंने सात दिरहम सदका किए थे एक साल हो गया है मुझे तो उसके बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिली यह कह कर चला गया रात को उसके दरवाज़ा पर किसी ने आवाज़ दी वह बाहर आया तो आवाज देने वाले ने कहा ऐ झूठे यह ले सात हजार दिरहम अगर तू क़यामत तक सब्र करता तो न मालूम कितनी जजा पाता। (रौजुल-अफ़्कार)
इन रिवायात से साबित हुआ कि योमे आशूरा के दिन रोजा रखना, सदका व खैरात करना, नवाफिल पढ़ना और ज़िक्र व अज्कार वगैरह करना बहुत ही फज़ीलत और अज्र व सवाब का बाइस है।
अल्लाह तआला को मंजूर यही था कि उसके हबीब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम का नवासा और जन्नत के नौजवानों का सरदार भी इसी वरगुज़ीदा और मुबारक दिन में शहादते उज्मा का मरतबा हासिल करे।
याद रखिए : उस दिन में इमाम रजियल्लाहु तआला अन्हु पर जो मसाइब व आलाम आए वह उनके दरजात की बुलन्दी और मकाम की रिफअत्त का सबब बने। लिहाजा हमें चाहिए कि हम उनकी बेमिसाल कुरबानी से जो उन्होंने सिर्फ अल्लाह तआला की रज़ा और इस्लाम की बका के लिए दी और फिस्क व फुजूर के खिलाफ हक व सदाकत की आवाज बुलन्द की और लरज़ा देने वाले मसाइब के बावजूद भी हक़ पर साबित कदम रहे सबक और इबरत हासिल करें और हक़ व सदाकत पर काइम रहने और अल्लाह की रज़ा और इस्लाम की बका के लिए कुरबानी देना अपना शेवा व तरीक़ा बनाएं और उन दिन में नेकी व भलाई में कसरत करें और ऐसे अक्वाल व अफआल से इज्तिनाब करें जो अल्लाह तआला और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मर्जी और तालीमात के सरासर खिलाफ हैं।
अल्बत्ता उनकी शहादत और उन आने वाले आलाम व मसाइब के ज़िक्र के वक्त अगर दर्द व मुहब्बत के सबब आँसू आ जाएं और गिरिया तारी हो जाए तो यह महमूद और मुस्तहसन है और ऐने सआदत है। लेकिन सीना कूबी वगैरह न करना चाहिए यह नाजाइज और हराम है।
अल्लाह से एक दिली दुआ…
ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।
प्यारे भाइयों और बहनों :-
अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।
क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
जज़ाकल्लाह ख़ैर….
2 thoughts on “यौमे आशूरा की फज़ीलत। Yome Ashura ki fazilat.”