मुस्नद अहमद में है जिसने अल्लाह की राह में एक हज़ार आयतें पढ़ीं वह इंशाअल्लाह क़यामत के दिन नबियों, सिद्दीकों, शहीदों और सालेहों के साथ लिखा जाएगा।(तफ्सीर इब्ने कसीर, हिस्सा 1, पेज 597)
और हम अल्लाह के रास्ते में एक चिल्ले में सूरः यासीन की रोज़ाना तिलावत करें तो इंशाअल्लाह तआला यह फ़ज़ीलत हमें भी हासिल हो जाये।)
तहज्जुद के वक़्त अल्लाह की तरफ से निदा :-
मैं नूर के तड़के में जिस वक़्त उठा सोकर !
अल्लाह की रहमत के दरवाज़े खुले पाये !
आती थी सदा पैहम जो मांगने वाला हो !
हाथ अपनी अक़ीदत से आगे मेरे फैलाये !
जो रिज़्क़ का तालिब हो मैं रिज़्क़ उसे दूंगा !
जो तालिब-ए-जन्नत हो जन्नत की तलब लाये !
जिस जिसको गुनाहों से बख़्शिश की तमन्ना हो !
वह अपने गुनाहों की कसूरत से न घबराये !
वह माइल-ए-तौबा हो मैं माइल-ए-बख्शिश हूँ!
मैं रहम से बख़्शुंगा वह शर्म से पछताये !
यह सुन के हुए जारी आँखों से मेरी आँसू !
क़िस्मत है मुहब्बत में रोना जिसे आ जाये !
आक़ाए गदा परवर साइल हूँ तेरे दर पर !
मैं और तो क्या मागू तू ही मुझे मिल जाये !
ईमान और इस्लाम की खुदा के यहाँ क़द्र है, हर 10 साल पर मोमिन-ए-कामिल का भाव और क़ीमत बढ़ती जाती है और मोमिन का दर्जा खुदा के यहाँ बढ़ता रहता है।
मुस्नद अहमद और मुस्नद अबू यअला में हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि बच्चा जब तक बालिग नहीं होता उसके नेक अमल उसके वालिद या वालिदैन के हिसाब में लिखे जाते हैं और जो कोई बुरा अमल करे तो वह न उसके हिसाब में लिखा जाता है न वालिदैन के। फिर जब वह बालिग हो जाता है तो क़लम-ए-हिसाब उसके लिए जारी हो जाता है और दो फरिश्ते जो उसके साथ रहने वाले हैं उनको हुक्म दिया जाता है कि उसकी हिफाज़त करें और कुव्वत बहम पहुंचाये, जब हालत-ए-इस्लाम में चालीस साल की उम्र को पहुंच जाता है तो अल्लाह तआला उसको तीन क़िस्म की बीमारियों से महफूज़ कर देते हैं।
खूबसूरत वाक़िआ:-अल्लाह के महबूब की नज़र में असली क़ीमत।
जुनून, जज़ाम और बर्स से, जब पचास साल की उम्र को पहुंचता है तो अल्लाह तआला उसका हिसाब हल्का कर देते हैं, जब साठ साल को पहुंचता है तो अल्लाह तआला उसको अपनी तरफ रूजूअ की तौफीक़ दे देते हैं। जब सत्तर साल को पहुचंता है तो सब आसमान वाले उससे मोहब्बत करने लगते हैं और जब अस्सी साल को पहुंचता है तो अल्लाह तआला उसके हसनात का लिखते हैं और सय्यिआत को मुआफ फरमा देते हैं।
फिर जब नब्बे साल की उम्र हो जाती है तो अल्लाह तआला उसके सब अगले पिछले गुनाह मुआफ फरमा देते हैं और उसको अपने घर वालों के मामले में शफाअत करने का हक़ देते हैं और उसकी शफाअत कुबूल फरमाते हैं और उसका लक़ब अमीनुल्लाह और असीरूल्लाह फिल् अर्ज़ि (यानी ज़मीन में अल्लाह का क़ैदी) हो जाता है।
क्योंकि इस उम्र में पहुंचकर अक्सर इंसान की कुव्वत ख़त्म हो जाती है किसी चीज़ में लज़्ज़त नहीं रहती, क़ैदी की तरह उम्र गुज़ारता है और जब अरज़ल उम्र को पहुंचता है तो उसके तमाम वह नेक अमल नामा-ए-आमाल में बराबर लिखे जाते हैं जो अपनी सेहत व कुव्बत के ज़माने में किया करता था और अगर उससे कोई गुनाह हो जाता है तो वह लिखा नहीं जाता।
(तफ्सीर इब्ने कसीर, हिस्सा 3, पेज 419-410, मआरिफुल कुरआन, हिस्सा 1, पेज 230)
अल्लाह से एक दिली दुआ…
ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।
प्यारे भाइयों और बहनों :-
अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।
क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
जज़ाकल्लाह ख़ैर….