आप का और हमारा येह मुशाहेदा है की मुसलमानों में आज बड़ी तदाद में ऐसे लोग है जो शादी तो कर लेते हैं महेर भी बाँधते है लेकिन उन्हें यह पता ही नहीं होता के महेर कितने किस्म का होता है और उनका निकाह किस किस्म के महेर पर तय हुआ था, लिहाज़ा मुसलमानों को येह सब जान लेना बहोत ज़रूरी है ।
महेर तीन किस्म का होता है ।
मुअज्जल :- महेरे मुअज्जल येह है की रूखसती से पहले महेर देना करार पाया हो । चाहे दिया कभी भी जाए।
मुवज्जल :- महेरे मुवज्जल यह है की महेर की रकम देने के लिए कोई वक़्त ( Period) मुकरर्र कर दिया जाए ।
मुतलक :- महेरे मुतलक येह है की जिस में कुछ तय न किया जाए इन तमाम महेर की किस्मों में महेर “मुअज्जल” रखना ज्यादा अफजल है । यानी रूखसती से पहले ही महेर अदा कर दिया जाए (कानूने शरीअत, जिल्द 2, सफा नं. 60)Maher kya hai aur kitne tarah ka hota hai.
मसअला :- महेरे मुअज्जल वसूल करने के लिए अगर औरत चाहे तो अपने शौहर को सोहबत करने से रोक सकती है और मर्द को हलाल (जाइज़) नहीं की औरत को मजबूर करे या उसके साथ किसी तरह की ज़बरदस्ती करे ।
येह हक औरत को सिर्फ उस वक्त तक हासिल है जब तक महेर वसूल न कर ले इस दरमियान अगर औरत अपनी मरज़ी से चाहे तो सोहबत कर सकती है इस दौरान भी मर्द अपनी बीवी का नान नफ्का खाना पीना, कपड़ा, खर्चा वगैरा ) बन्द नहीं कर सकता। जब मर्द औरत को उस का महेर दे दें तो औरत को अपने शौहर को सोहबत करने से रोकना जाइज़ नहीं (ताना-ए-मुस्तफाविया, जिल्द 3 सफा 66, कानूने शरीअत, जिल्द 2 सफा 60)Maher kya hai aur kitne tarah ka hota hai.
मस्अला :- इसी तरह अगर महेरे मुवज्जल था (यानी महेर अदा करने के लिए एक ख़ास मुदत मुकरर्र थी और वोह मुद्दत ख़त्म हो गई तो औरत शौहर को सोहबत करने से रोक सकती है ।(कानूने शरीअत, जिल्द 2, सफा नं. 60)
मस्अला:-औरत को महेर मुआफ कर देने के लिए मजबूर करना जाईज़ नहीं । इस ज़माने में ज्यादा तर लोग यही समझते है कि महेर ना कोई जरूरी नहीं बल्कि यह सिर्फ एक रस्म है ।
और कुछ लोगों का मानना है की महेर तलाक के बाद ही दिया जाता है, कुछ लोग है कि महेर इस लिए रखते हैं कि औरत को महेर देने की ख़ौफ से तलाक नही दे सकेगा ।
यही वजह है हमारे हिन्दुस्तान में ज्यादा तर लोग महेर नहीं देते यहाँ तक कि इन्तिकाल के बाद औरत उनके जनाज़े पर आ कर महेर मुआफ़ करती है। वैसे औरत के महेर मुआफ कर देने से मुआफ तो हो जाता है लेकिन महेर दिये बगैर दुनिया से चले जाना ठीक नहीं,
अगर खुदा न खाँसता पहले औरत का इन्तेकाल हो गया तो कियामत में सख्त पकड़ और सख्त अजाब होगा,लिहाजा इस खतरे से बचने के लिए महेर अदा कर देना चाहिये इस में सवाब भी है और येह हमारे आका सल्लल्लाह तआला अलैहि व सल्लम की सुन्नत भी है । (आयत: हमारा रब जल्ला जलालहू हमें क्या हुक्म फरमाता है,और औरतों को उन के महेर खुशी से दो ।(तर्जमा :- कन्जुल ईमाम. पारा 4. सूरए निसा, रूकू 12. आयत 4)Maher kya hai aur kitne tarah ka hota hai.
जहालत :- अक्सर मुसलमान अपनी हैसियत से ज्यादा महेर रखते हैं और येह ख्याल करते हैं कि “ज्यादा महेर रख भी दिया तो क्या फर्क पड़ता है देना तो है ही नहीं” यह सख्त जहालत है और दीन से मजाक ऐसे लोगों के मुल्लिक “शहजादा-ए-आला हजरत हुज़ूर मुफ्ती-ए-आजमे हिन्द मुस्तफा खाँ रहमतुल्लाह तआला अलैह अपने एक फतवे में इरशाद फरमाते हैं-
” महेर नहीं देना है एैसा ख्याल कर लेना बहुत बुरा है जो ऐसी नियत रखता है, कि वोह दीन नहीं समझता, वोह इस से डरे कि हदीसे पाक में है उसका हल जिना करने वालों के साथ होगा ।(फतावा-ए-मुस्तफाविया जिल्द 3 फा नं. 70
लिहाजा महेर उतना हो रखे जितना देने की हैसियत हो और महेर जितनी जल्दी हो सके अदा कर दे यही अफज़ल तरीका है ।
हुजूर-ए-अक्दस रसूले मकबूल सल्लल्लाहो तआला अलैहि व सल्लम ने इरशाद फरमाया- “औरतों में वाह बहुत बेहतर है जिस का हुस्न व जमाल (खूबसूरती ) ज्यादा हो और महेर कम हो” । (कीम्या-ए-सआदत, सफा 260)
इमाम गज़ाली रजि अल्लाह तआला अन्हु फरमाते हैं “बहुत ज्यादा महेर बाँधना मकरूह है, लेकिन हैसियत से कम भी न हो” ।(कीम्या-ए-सआदत, सफा नं. 260)
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क्या पता अल्लाह तआला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए ।आमीन।
खुदा हाफिज…