
हज़रत आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि के ज़माने का वाकिआ है कि आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि के ज़माने में उलमा कुछ आदमी कसमपर्सी में मुब्तला हो गये, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। इस वास्ते के उमरा अपने नशे दौलत में पड़ गये। अब उलमा से मसला कौन पूछे? तो उलमा बेचारे जूतियाँ चटख़ाते फिरने लगे।
आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि चूंकि खुद आलिम थे, एहले इल्म की अज़मत को जानते थे, तो उन्होंने कोई ब्यान वगैरह अख़बारात में शाए नहीं कराया कि उलमा की क़द्र करनी चाहिए।
यह तदबीर इख़्तियार की कि जब नमाज़ का वक़्त आ गया तो आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने कहा कि हम चाहते हैं कि आज फ्लां वाली-ए-मुल्क जो दक्कन के नवाब हैं वह हमें वुजू कराएं तो जो दक्कन के वाली थे उन्होंने सात सलाम किए कि बड़ी इज़्ज़त आफज़ाई हुई कि बादशाहे सलामत ने मुझे हुक्म दिया कि मैं वजू कराऊं। वह समझे कि अब कोई जागीर मिलेगी। बादशाह बहुत राज़ी है तो आप फौरन पानी का लोटा भर लाए और आकर वुज़ू कराना शुरू कर दिया।
आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने पूछा कि वुजू में फर्ज़ कितने हैं? उन्होंने सारी उम्र कभी वुजू किया हो तो उन्हें खबर होती। अब वह हैरान, क्या जवाब दें। पूछाः वाजिबात कितने हैं? कुछ पता नहीं। पूछाः सुन्नतें कितनी हैं? जवाब गाइब ।
आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने कहा बड़े अफ़सोस की बात है कि लाखों लोगों के ऊपर तुम हाकिम हो, लाखों की गर्दनों पर हुकूमत करते हो और मुस्लिम तुम्हारा नाम है, तुम्हें यह भी पता नहीं कि वुजू में फर्ज़, वाजिब, सुन्नतें कितनी हैं, मुझे उम्मीद है कि मैं आइंदा ऐसी सूरतेहाल नहीं देखूंगा। एक के साथ यह बर्ताव किया। रमज़ानुल मुबारक का महीना था, एक दूसरे अमीर से कहा, आप हमारे साथ इफ्तार करें।
उसने कहा : जहाँपनाह यह तो इज़्ज़त अफ़्ज़ाई है, वर्ना फक़ीर की ऐसी कहाँ क़िस्मत कि बादशाह सलामत याद करें और जब इफ्तार हुआ तो आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने उनसे कहा कि मुफ्सिदात सौम जिनसे रोज़ा फासिद होता है कितने हैं?उन्होंने इत्तिफाक़ से रोज़ा ही नहीं रखा था, उन्हें पता ही नहीं था कि रोज़े के मुफ्सिदात क्या हैं, अब चुप हैं क्या जवाब दें।
आलमगीर रहमतुल्लाहि ताअला अलैहि ने कहा बड़ी वैगेरती की बात है कि तुम मुसलमानों के अमीर वाली-ए-मुल्क और नवाब कहलाते हो, हज़ारों आदमी तुम्हारे हुक्म पर चलते हैं और तुम मुसलमान, रियासत इस्लाम, तुम्हें ये भी पता नहीं कि रोज़ा फासिद किन चीज़ों से होता है?
इस तरह किसी से ज़कात का मस्अला पूछा तो ज़कात का मसला न आया। किसी से हज वगैरह का गर्ज़, सारे काम हुए और यह कहा कि आइंदा मैं ऐसा न देखें।
बस जब यहाँ से उम्रा वापस हुए, अब उन्हें मसाइल मालूम करने की जरूरत पड़ी तो मौलवियों की तलाश शुरू की, अब मौलवियों ने नखरे शुरू किएँ, किसी ने कहा, हम पाँच सौ रुपये तन्ख्वाह लेंगे। उन्होंने कहाः हुजूर! हम एक हज़ार रुपये तन्ख्वाह देंगे इसलिए कि जागीरें जाने का अंदेशा था। रियासत छिन जाती । तो मौलवी न मिले, तमाम मुल्म के अन्दर मौलवियों की तलाश शुरू हुई। जितने उल्मा तल्बा थे सब ठिकाने लग गये, बड़ी-बड़ी तन्ख़्वाहें जारी हो गई। और साथ ही यह कि जितने उम्रा थे उन्हें मसाइल मालूम हो गये और दीन पर उन्होंने अमल शुरू कर दिया।
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भोपाल में एक आम दस्तूर था कि अगर किसी गरीब आदमी ने अपने बच्चे को मकतब में बिठालाया तो आज जैसे उसने अलिफ लाम-मीम का पारा शुरू किया तो रियासत की तरफ से एक रुपये माहाना उसका वज़ीफ़ा मुकर्रर हो गया, जब दूसरा पारा लगा तो दो रुपये हो गया, तीसरा पारा लगा तो तीन रुपये माहाना हो गये, यहां तक कि जब तीस पारे हो गये तो तीस रुपये बच्चे का माहाना वज़ीफा होता।
और उस ज़माने में साठ-सत्तर बरस पहले तीस रुपये माहाना ऐसे थे जैसे तीन सौ रुपये महीना बहुत बड़ी आमदनी थी। सस्ता ज़माना था, अरज़ाानी थी, उसका नतीजा यह हुआ कि जिनते ग़रीब लोग थे जिन्हें खाने को नहीं मिलता था वह बच्चों को मदरसे में दाखिल करा देते थे कि कुरआन करीम हिफ़्ज़ करेगा तो उसी दिन से वज़ीफा जारी, हज़ारों ऐसे घराने थे और हज़ारों ऐसे हाफिज़ पैदा हो गये, सारी मस्जिदें हाफिज़ों से आबाद हो गईं।
अल्लाह से एक दिली दुआ…
ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।
प्यारे भाइयों और बहनों :-
अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।
क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
खुदा हाफिज़…..