22/06/2025
मोहर्रम में क्या करें क्या ना करें 20250621 222159 0000

मोहर्रम में क्या करें क्या ना करें? Moharam mein Kya Karen Kya Na Karen.

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Moharam mein Kya Karen Kya Na Karen.
Moharam mein Kya Karen Kya Na Karen.

मज़हबे इस्लाम में एक “अल्लाह” की इबादत ज़रूरी है साथ ही साथ उसके नेक बन्दों से मुहब्बत व अकीदत भी ज़रूरी है अल्लाह के नेक अच्छे और मुकद्दस बन्दों से असली सच्ची और हकीकी मोहब्बत तो यह है कि उनके ज़रिये अल्लाह ने जो रास्ता दिखाया है उस पर चला जाये।

उनका कहना माना जाये अपनी ज़िन्दगी उनकी ज़िन्दगी की तरह बनाने की कोशिश की जाये इसके साथ साथ इस्लाम के दायरे में रह कर उनकी याद मनाना उनका ज़िक्र और चर्चा करना उनकी यादगारें कायम करना भी मुहब्बत व अकीदत है और अल्लाह के जितने भी नेक और बरगुज़ीदा बन्दे हैं उन
सबके सरदार उसके आखरी रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं उनका मर्तबा इतना बड़ा है कि वह अल्लाह के महबूब हैं और जिसको दीन व दुनिया का जो कुछ भी अल्लाह ने दिया है और देता है और देगा सब उन्हीं का ज़रिया वसीला और सदका है।

उनका जब विसाल हुआ और जब दुनिया से तशरीफ ले गये तो उन्होने अपने करीबी दो तरह के लोग छोड़े थे एक तो उनके साथी जिन्हें सहाबी कहते हैं इनकी तादाद हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के विसाल के वक़्त एक लाख से भी ज़्यादा थी दूसरे हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की आल औलाद और आपकी पाक बीवियां जिन्हे अहले बैत कहते हैं।

हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के करीबी इन सब लोगो से मुहब्बत रखना मुसलमान के लिये निहायत जरूरी है हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के अहले बैत हों या आपके सहाबी ! इन में से किसी को भी बुरा भला कहना या उनकी शान में गुस्ताखी और बेअदबी करना मुसलमानों का काम नहीं है ऐसा करने वाला गुमराह व बद दीन है उसका ठिकाना जहन्नम है।

हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के अहले बैत मे एक बड़ी हस्ती इमाम आली मकाम सैयदना “हुसैन” भी हैं उनका मर्तबा इतना बड़ा है कि वह हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सहाबी भी हैं और अहले बैत में से भी हैं यानि आपकी प्यारी बेटी के प्यारे बेटे आपके प्यारे और चहीते नवासे हैं रात रात भर जाग कर अल्लाह की इबादत करने वाले और कुराने अज़ीम की तिलावत करने वाले मुत्तकी, इबादत गुज़ार,परहेज़गार, बुजुर्ग अल्लाह के बहुत बड़े वली हैं साथ ही साथ मज़हबे इस्लाम के लिये राहे खुदा में गला कटाने वाले शहीद भी हैं।

मोहर्रम के महीने की दस तारीख को जुमे के दिन 61 हिजरी यानि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के विसाल के तकरीबन पचास साल के बाद आपको और आपके साथियों और बहुत से घर वालों को ज़ालिमों ने जुल्म करके करबला नाम के एक मैदान में तीन दिन प्यासा रखकर शहीद कर दिया इस्लामी तारीख का यह एक दिल दहला देने वाला हादसा है।

और 10 मोहर्रम जो कि पहले ही से एक तारीखी और यादगार दिन था इस हादसे ने उसको और भी ज़िन्दा जावेद कर दिया और इस दिन को हज़रत इमाम हुसैन के नाम से जाना जाने लगा और गोया यह हुसैनी दिन हो गया और बेशक ऐसा होना ही चाहिये लेकिन मज़हबे इस्लाम एक सीधा सच्चा संजीदगी और शराफत वाला मज़हब है और इसकी हदें मुकरर्र हैं।

लिहाज़ा इसमें जो भी हो सब मज़हब और शरियत के दायरे में रहकर हो तब ही वह इस्लामी बुजुर्गों की यादगार कहलायेगी और जब हमारा कोई भी तौर तरीका मज़हब की लगाई हुई चार दीवारियों से बाहर निकल गया तब वह गैर इस्लामी और हमारे बजुर्गों के लियें बाइसे बदनामी हो गया हम जैसा करेंगे हमें देखकर दूसरे मज़हबो के लोग यही समझेगें कि इनके बजुर्ग भी ऐसा करते होंगें क्योकि कौम अपने बजुर्गो और पेशवाओं का तआरूफ होती है।

हम अगर नमाजें पढ़ेंगे, कुरान की तिलावत करेंगें जुऐ शराब गाने बजाने और तमाशो से बचकर ईमानदार, शरीफ और भले आदमी बन कर रहेंगे तो देखने वाले कहेंगे कि जब यह इतने अच्छे है तो इनके बुजुर्ग कितने अच्छे होंगे और जब हम इस्लाम के ज़िम्मेदार ठेकेदार बनकर इस्लाम और इस्लामी बजुर्गो के नाम पर गैर इन्सानी हरकतें करेंगे तो यकीनन जिन्होंने इस्लाम का मुतआला नही किया है उनकी नज़र में हमारे मज़हब का गलत तआरूफ होगा और फिर कोई क्यों मुसलमान बनेगा ?

हुसैनी दिन यानि 10 मुहरर्रम के साथ कुछ लोगों ने यही सब किया और इमाम हुसैन के किरदार को भूल गये और इस दिन को खेल तमाशों, गैर शरी रुसूम नाच गानों, मेलों ठेलों और तफरीहो का दिन बना डाला और ऐसा लगने लगा कि जैसे इस्लाम भी दूसरे मज़हबो की तरह खेल तमाशो, तरियों और रगं रंगेलियों वाला मज़हब है मुसलमान कहलाने वालो में एक नाम निहाद इस्लामी फिरका जिसे राफज़ी या शिया कहा जाता है।

उनके यहाँ नमाज़ रोज़े वगैरह अहकामे शरअ और दीनदारी की बातों को तो कोई खास अहमियत नही दी जाती बस मोहर्रम आने पर रोना, पीटना, चीखना, चिल्लाना, कपड़े फाड़ना व सीने पीटना ही उनका मज़हब है गोया कि उनके नज़दीक अल्लाह तआला ने अपने रसूल को इन्ही कामों को करने और सिखाने को भेजा था और इन्ही सब बेकार बातों का नाम इस्लाम है हांलाकि हदीसे पाक मे है।

“हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं जो किसी के गम में गाल पीटे, गिरेबान फाड़े ज़माना-ए-जाहिलियत की सी चीख पुकार करे वह हम मे से नहीं (मिशकात पेज 150)

मज़हबे अहले सुन्नत वल जमाअत में से भी बहुत से अवाम कुछ रा‌जियों के असरात और कुछ हिन्दुस्तान के पुराने गैर मुस्लिमों जिनके यहाँ धर्म के नाम पर जुए खेले जाते हैं शराबें पी जाती हैं जगह जगह मेले लगा कर मर्दो औरतों को जमा करके बे हयाई की बातें कराई जाती हैं उनकी सोहबतों में रहकर इनके पास बैठने, उठने रहने सहने की नतीजे में खेल तमाशों और वाहियात भरे मेलो को ही इस्लाम समझने लगे और बांस काग़ज़ और पन्नी के मुजस्समे बनाकर इन पर चढ़ावे चढ़ाने लगे।

दर असल होता यह है कि ऐसे काम कि जिसमें लोगों को खूब मज़े और दिल लगी आये तफरी और चटखारे मिलें उनका रिवाज अगर कोई डाले तो वह बहुत जल्दी पड़ जाता है और कौम बहुत जल्दी उन्हें अपना लेती है और जब धर्म के ठेकेदार उनमें सवाब बता देते हैं तो अवाम उन्हें और भी मज़े लेकर करने लगते हैं कि यह खूब रही रंगरंगिलियां भी हो गई और सवाब भी मिला तफरी और दिललगी भी हो गई खेल तमाशे भी हो गये और जन्नत का काम, कब्र का आराम भी हो गया मौलवी साहब या मियां हुजूर ने कह दिया है कि सब जाइज़ व सवाब का काम है।

खूब करो और हमने भी ऐसे मौलवी साहब को नज़राना देकर खुश कर दिया है और उन्होंने हमको ताज़िये बनाने, घुमाने, ढोल बजाने और मेले ठेले लगाने और इनमें जाने की इजाज़त दे दी है अल्लाह नाराज़ हो या उसका रसूल ऐसे मौलवियों और पीरों से हम खुश वह हमसे खुश इस सबके बावजूद अवाम में ऐसे लोग भी काफी हैं जो गलती करते हैं लेकिन उसको ग़लती नहीं समझते हैं और इन हराम को हलाल बताने वाले मौलवियों की भी उनकी नज़र में कुछ औकात नही रहती।

एक गांव का वाक्या है कोई ताज़िये बनाने वाला कारीगर नहीं मिल रहा था या बहुत सी रकम का मुतालबा कर रहा था तो वहां की मस्जिद के इमाम ने कहा कि किसी को बुलाने की ज़रूरत नहीं है ताज़िया मैं बना दूँगा और इमाम ने गांव वालों को खुश करने के लिये बहुत उम्दा बढ़िया और खूससूरत ताज़िया बनाकर दिया और फिर इन्ही ताज़िये दारों ने इस इमाम को मस्जिद से निकाल दिया और यह कहकर इसका हिसाब कर दिया कि यह कैसा मौलवी है कि ताज़िये बना रहा है मौलवी तो ताज़ियेदारी से मना करते हैं और मौलवी साहब का बकौल शायर यह हाल हुआ कि :-

न खुदा ही मिला न विसाले सनम
न यहां के रहे न वहां के रहे।

दरअसल बात यह है कि सच्चाई में बहुत ताक़त है और हक़ हक़ ही होता है और हक़ सर चढ़कर बोलता है और हक़ की अहमियत उनके नज़दीक भी होती है जो हक़ पर नहीं हैं।

खूबसूरत वाक़िआ :- शौहर और बीवी के आदाब।

बहरहाल इसमें कोई शक नहीं कि एक बड़ी तादाद में हमारे सुन्नी मुसलमान भाई हज़रत इमाम हुसैन की मोहब्बत में गलत फहमियों के शिकार हो गये और मज़हब के नाम पर ना जाइज़ तफरीह और दिल लगी के काम करने लगे इनकी गलत फहमियों को दूर करने के लियें हमने यह मजमून मुरत्तब किया है इस मुख़्तसर मजमून में हम यह दिखायेंगे कि आज कल मोहर्रम के महीने में इस्लाम व सुन्नियत के नाम पर जो कुछ होता है इसमें इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र से सुन्नी उलेमा के फतवों के मुताबिक जाइज़ क्या है और ना जाइज़ क्या है किस में गुनाह है और किसमें सवाब।

पढ़ने और सुन्ने वालों से गुज़ारिश है वह ज़िद और हटधर्मी से काम न लें मौत व कब्र और आखिरत को पेशे नज़र रखें। मेरे अज़ीज इस्लामी भाईयों हम सब को यकीनन मरना है और खुदाये तआला को मुंह दिखाना है वहां ज़िद व हटधर्मी से काम नहीं चलेगा भाईयो आंखें खोलो और मरने से पहले होश में आ जाओ और पढ़ो समझो और मानो ।

अल्लाह से एक दिली दुआ…

ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।

प्यारे भाइयों और बहनों :-

अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।

क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
खुदा हाफिज़…..

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