मुसलमान पर ज़कात इस हालत में वाजिब होती है जब वह साहिबे निसाब हो यानी जिनके पास मोजिबे ज़कात माल हो जकात का निसाब यह है।
तीस मिस्काल सोना या दो सौ दिरहम चांदी या इन दोनों में से किसी एक की कीमत के बराबर माल तिजारत या पाँच ऊंट या तीस गायें या भैसें या चलीस बकरियां, बशर्ते कि यह सब जानवर पूरे साल जंगल में आज़ाद मुफ्त चरते हों। निसाबे ज़कात हैं, गुलाम और मकातिब पर ज़कात वाजिब, फर्ज़ नहीं है।
निसाब
सोने या चांदी पर चालीसवां हिस्सा ज़कात है यानी बीस दीनार पर निस्फ दीनार, दो सौ दिरहम पर पांच दिरहम ।
ऊंटों का निसाब
अगर पांच ऊंट हों तो एक भेड़ या बकरी (भेड़ शश माहा और बकरी एक साला) दस ऊँट हों तो दो बकरियां या दो भेड़ें। 150 ऊंटों पर तीन बकरियां (भेंड़े) 20 ऊंटों पर चार भेड़ बकरियां दी जाएं छब्बीस ऊंटों के मालिक पर पूरे साल भर की ऊंटनी देना वाजिब है जो एक साल की पूरी हो अगर साल भर की ऊंटनी मौजूद न हो तो दो बरस से ज़्यादा उम्र का एक ऊंट दिया जाए।
छत्तीस ऊंटों का मालिक दो साल की एक ऊंटनी ज़कात में दे। छियालिस ऊंटों का मालिक तीन साल की उम्र का एक ऊंट ज़कात दे। इक्सठ ऊंटों पर एक ज़कात दे जो चार साल पूरे करके पांचवें साल में दाखिल हो गया हो छिहत्तर (76) ऊंटों वाला दो बरस की दो ऊंटनियां ज़कात दे। एकानवे से एक सौ बीस ऊंटों तक तीन तीन बरस तक तीन तीन बरस के दो ऊंट देना होंगे, इससे ज़्यादा अगर एक भी बढ़ जाए तो हर चालीस में से दो बरस की एक ऊंटनी ज़कात दे और हर पचास पर तीन साल का एक ऊंट ज़कात दे।Zakat.
गाय, भैंस का निसाब
अगर तीस (30) गाय या भैंस का मालिक हो तो एक बरस का बच्चा नर या मादा ज़कात है, अगर चालीस हों तो एक बच्चा (नर या मादा) जो दो साल का हो और साठ गायों पर दो बच्चे जिन की उम्र एक साल है ज़कात है जब गायें सत्तर तक पहुंच जायें तो इसमें से एक बच्चा साल भर का और एक बच्चा दो साल का जकात है। इसी तरह पर तीस गायों से एक एक बच्चा एक साल का और हर चालीस से हर बच्चा दो बरस का निकाले।
बकरियों का निसाब
चालीस से एक सौ बकरियों तक एक बकरी जकात है। अगर तादाद उस से ज्यादा हो तो दो सौ की तादाद तक दो बकरियां या दो भेड़ें। अगर दो सौ से एक भी ज़्यादा हो जाए तो तीन सौ तक तीन बकरियां या भेड़ें जकात हैं। इससे आगे हर सैकड़े पर एक दी जाए।
ज़कात के मुस्तहिक
माले ज़कात के हकदार आठ किस्म के लोग हैं जिन का जिक्र कुरआन पाक में आयाः
(1) फुकरा यानी वह नादार लोग जिन के पास गुजर बसर के लिए कुछ न हो ।
(2) मसाकीन यानी वह मुफलिस जिसके पास कुछ तो हो मगर बकदरे ज़रुरत न हो।
(3) ज़कात के आमेलीन, यानी कारिन्दे और कार कुन यानी ज़कात वसूल करने और बैतुल माल तक पहुंचाने वाले।
(4) मोअल्लेफतुल कुलूब यानी ऐसे काफिर जिन को अगर माल दिया जाए तो उनके मुसलमान हो जाने की उम्मीद और तवक़्को हो या कम अज़ कम मुसलमान को उनकी शरारतों से महफूज़ रखा जा सके।Zakat.
(5) गुलामों को आज़ाद कराने में, ऐसे कर्जदारों की इआनत में जिन को अदाए कर्ज की ताकत न हो।
(7) वह मुजाहेदीन जो बेगैर किसी एवज़ या तन्ख्वाह के काफिरों के साथ जिहाद में मश्गूल हैं।
(8) ऐसा मुसाफिर जिसके पास सफरे खर्च न हो और वह परदेस में इसकी वजह से पड़ा हो। ज़कात का बयान।
सदकए नाफिला
फर्ज़ ज़कात अदा करने के बाद नफ़्ल खैरात हर ज़माने में हर वक़्त मुस्तहब है, खुसूसन बरकत वाले महीनों और दिनों में तो और भी अफज़ल है। मसलन रजब, शबान और रमजान के महीनों में ईद के अय्याम, मोहर्रम के दस दिन, कहत साली और तंग हाली के दिनों में अफज़ल है।
सदकए नफ़्ल अदा करने वालों के माल में खैर व बरकत होती है और उसके अहल व अयाल अमल व अमान और आराम से रहते हैं इस के अलावा आखिरत में बड़ा सवाब मिलता है।Zakat.
सदकए फित्र
जिस शख्स के पास अपने और अपने बीवी बच्चों की ज़रुरीयात से ज़्यादा रोज़ी हो तो उस पर सदकए फित्र वाजिब है। ईद की रात या ईद के दिन अपनी जात, अपनी औलाद, बीवी, गुलाम, बांदी, मां बाप, भाई बहन, चचा और चचा की औलाद और करीबी अइज़्ज़ा की तरफ से बशर्ते कि उन की किफालत और नान नफका की ज़िम्मेदारी उस पर हो, सदकए फित्र अदा करे।
सदकए फित्र की मिक्दार
खूजूर, किशमिश, गेहूं, जौ या उनके सत्तू, आटा एक सआ है सआ एक मुमासिल वज़न हमारे मुल्क में 3 किलो 510 ग्राम हैं एहतियातन साढ़े चार सेर शुमार किया जाता है जो वजन में साढ़े पांच रत्ले इराकी है बरकौले सही पंसेरी है सदकए फित्र में दिया जा सकता है अगर कहीं यह चीजें न हों तो शहर में जो गल्ला उमूमन इस्तेमाल होता है। मसलन चावल, जवार, चना, वगैरह उसी में से उतनी मिकदार अदा करे।
रोज़ा
जब रमजान का मुबारक महीना आ जाए तो हर मुसलमान पर इसके रोज़े वाजिब हो जाते हैं अल्लाह तआला का इरशाद है जो शख्स ‘तुम में से रमज़ान को पाए तो उसमें रोज़े रखे।
अगर चांद देख कर या किसी आदिल सिकह आदमी की शहादत से या शबान की तीसवीं रात को बादल या गुबार की वजह से चांद न देखने या माहे शबान के तीस दिन पूरे हो जाने से रमजान की आंमद साबित हो जाए तो दूसरे दिन से रोज़े रखे और वक्ते मग़रिब से सुबह सादिक के तुलू होने तक जिस वक़्त चाहे नीयत करे।Zakat.
रोज़ाना पूरे महीने इसी तरह नीयत किया करे। एक ज़ईफ रिवायत में यह भी आया है कि अगर रमज़ान की पहली रात में महीने भर के रोज़ों की नीयत एक साथ कर ली तो काफी है।
सुबह से लेकर पूरे दिन खाने पीने और जिमाअ से परहेज़ करे, कोई शय भी बाहर की तरफ से पेट के अन्दर दाखिल न हो न अपने बदन से खून निकाले न किसी दूसरे से निकलवाए। (पचने न खुद लगाए न दूसरे से लगवाए) खुद कै न करे कोई ऐसी हरकत न करे जिस से इनज़ाल की सूरत पेश आए।
कज़ा व कफ्फारा
ऊपर बयान की गई एहतियातों को मलहूज़ रखना अज बस जरुरी है. अगर इन अहकाम में से किसी एक की खिलाफवर्जी करेगा तो कज़ा लाजिम आएगी यानी रोजा बातिल हो जाएगा और उस दिन भी शाम तक हर ममनूआ चीज़ से परहेज़ रखना ज़रुरी होगा।
रोज़ा के दर्मियान रोज़े की हालत में जिमाअ करने से कफ़्फ़ारा भी वाजिब हो जाता है।
(1) यानी किसी मुसलमान बांदी या गुलाम को आजाद करना जो तन्दरुस्त और काम काज करने के काबिल हो (अन्धा, लंगड़ा, लूला, लुंजा या बहरा न हो)
(2) अगर इसकी ताकत न हो तो मुतवातिर दो माह तक रोज़े रखे,
(3) यह भी न हो सके तो साठ फकीरों को खाना खिलाए इस तरह कि हर मिसकीन या फकीर कम अज़ कम एक सौ साढ़े तिहत्तर दिरहम वज़नी गेहूं दे या हर एक को निस्फ सआ (175 1/2 तोले) खूजूर या जौ या उस शहर में जो गल्ला खाया जाता हो वह दे दे लेकिन अगर कुछ देनें की तौफीक न हो तो अल्लाह तआला से इस्तिगफार करे और दूसरे रोज़ कोई अच्छा अमल करे।Zakat.
रमज़ान के महीने में दिन के वक़्त किसी जवान औरत के साथ खलवत (तन्हाई) में न रहे न बोसा ले ख़्वाह वह उसकी मोहरम ही क्यों न हो, ज़वाले आफताब के बाद मिसवाक से परहेज़ करे, गोंद चबाने, थूक मुंह में जमा करके निगलने, पकते वक़्त खाना का मजा या नमक चखने से इज्तेनाब करे।
सहर व इफ्तार
किसी की गीबत, बुराई करने, झूठ बोलने और गाली गलोच से परहेज करे। बादल वाले दिन इफ्तार में ताखीर करे वरना इफ्तार में जल्दी करना मुस्तहब है, अगर ऐसे लोगों में से न हो जिन को तुलूए फज्र का अन्दाज़ा नहीं हो सकता। (जैसे नाबीना, कमज़ोर नज़र वाला) तो उसे सहरी ताखीर से नहीं खाना चाहिए बल्कि जल्द खाए वरना आखिर रात तक तवक्कुफ करके सहरी खाना अफजल है। सदक़ा और खैरात क्या है?
इफ्तार
अफज़ल यह है कि खुजूर या पानी से इफ्तार करे और और इफ़्तार के वक़्त वही दुआ करे जो हुजूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाई है। सरकारे दो आलम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि अगर किसी ने रोज़ा रखा है और इफ्तार में शाम का खाना उसके सामने लाया जाए तो (इफ़्तार करते वक़्त) यह दुआ पढ़े बिस्मिल्लाहि अल्लाहुम्मा ल-क सुमतो व अला रिज़्केका अफ्तरतो सुब्हान-क व बेहम्देका अल्लाहुम्मा तकब्बल मिन्ना फइन्न-क अन्तस समीउल अलीम,
यानी मैं अल्लाह के नाम से शुरु करता हूं। ऐ अल्लाह मैंने रोज़ा तेरे लिए रखा और तेरे ही रिज़्क से इसे खोला, तू पाक है और तेरे ही लिए हम्द है। ऐ अल्लाह तू हमसे इस रोज़े को कबूल कर। बेशक तू सुनने और जानने वाला है।Zakat.
अल्लाह रबबूल इज्ज़त हमे कहने सुनने से ज्यादा अमल की तौफीक दे,हमे एक और नेक बनाए, सिरते मुस्तक़ीम पर चलाये, हम तमाम को रसूल-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और इताअत की तौफीक आता फरमाए, खात्मा हमारा ईमान पर हो। जब तक हमे जिन्दा रखे इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखे,आमीन।
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क्या पता अल्लाह ताला को हमारी ये अदा पसंद आ जाए और जन्नत में जाने वालों में शुमार कर दे। अल्लाह तआला हमें इल्म सीखने और उसे दूसरों तक पहुंचाने की तौफीक अता फरमाए ।आमीन।
खुदा हाफिज…