05/06/2025
हज़रत गौसुल आज़म की तक़रीर का करिश्मा। 20250531 151559 0000

हज़रत गौसुल आज़म की तक़रीर का करिश्मा। Hazrat gausul Azam ki taqreer Ka Karishma.

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Hazrat gausul Azam ki taqreer Ka Karishma.
Hazrat gausul Azam ki taqreer Ka Karishma.

हज़रत की मादरी ज़बान फारसी थी और बगदाद अरबी अदब का गहवारा और फुस्हाए अरब का मल्जा व मावा। पस जरुरत थी कि आप अरबी ज़बान में वाज़ फरमायें इस लिए बावजूद कि आप उलूमे दीनिया व अदबीया पर उबूर कामिल हासिल कर चुके थे और हदीस शरीफ के मनी में ऐसे ऐसे निकात बयान फरमाते थे कि आप के असातज़ा भी उसके मोअतरिफ थे लेकिन बई हमा कमाले तकरीर की हिम्मत आप अपने आप में नहीं पाते थे चुनाचे हज़रत खुद फरमाते हैं कि “521हि. में 16 शव्वाल सह शंबा के रोज़ मैं हुजूरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के दीदार से आलमे रुया में मुशर्रफ हुआ।

मैंने देखा कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम मुझे वाज कहने की हिदायत फरमा रहे हैं। मैंने अर्ज किया कि हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम मैं अजमी हूं। बगदाद के फुस्हा के सामने जबान खोलते हुए डरता हूं। मैं उन हज़रात के सामने क्यों कर कलाम करूं। ऐसा न हो कि बगदाद के फसीह व बलीग हज़रात मुझ पर यूं ताना जन हों कि “औलादे नबी होने के बावुजूद अरबी से ना बलद है, और फिर भी वाज़ व पिन्द में सरगर्म है।”

मेरी इस गुज़ारिश पर हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने सात मर्तबा कुछ पढ़कर मेरे मुंह पर दम फरमाया और वाज का हुक्म दिया। दूसरे रोज़ मैं बादे नमाज़े जुहर वाज़ कहने के इरादे से मिम्बर पर बैठा और सोचता रहा कि क्या कहूं। मेरे इर्द गिर्द खिलकत का हुजूम था और हर एक मेरा वाज़ सुनने का मुशताक था। हर चन्द कि मेरे सीना में दरियाए इल्म मौजज़न था मगर ज़बान नहीं खुलती थी कि उसी वक्त मेरे ज‌द्दे अमजद हज़रत अली करमुल्लाह वज्हहु तशरीफ लाए और छः मर्तबा कुछ पढ़कर मेरे मुंह पर दम किया मेरी ज़बान फौरन खुल गई और मैंने वाज़ शुरु कर दिया।

अब मेरी ताकते लिसानी की सारे बगदाद में धूम मच गई। खुद मेरे दिल में जोशे सुखन का यह आलम था कि अगर कुछ अर्सा ख़ामोश रहता और वाज़ न कहता तो मेरा दम घूंटने लगता था। अव्वल अव्वल मेरी महफिले तज़्कीर में थोड़े लोग हुआ करते थे मगर आखिर में नौबत यहां तक पहुंची कि हुजूम की मस्जिद में गुंजाइश ना मुमकिन हो गई बिल आखिर ईदगाह में मिम्बर रखा गया और मैंने वहां वाज़ कहना शुरु कर दिया।

आप फरमाते हैं किः- सत्तर हज़ार अफराद मेरी मजलिस में शरीक हुआ करते थे। सवार इतने आते थे कि उनकी गर्द से ईदगाह के गिर्द एक हलका बन जाता था और दूर से तोदा नज़र आता था।

हज़रत शाह अब्दुल हक़ मोह‌द्दिस देहलवी अखबारुल अखयार में ब तज़किरा हज़रत गौसुल आज़म तहरीर फरमाते हैं किः हज़रत के कलाम मोञ्जिज़ बयान में वह तासीर थी कि जब आप आयाते वईद के मआनी इरशाद फरमाते थे तो तमाम लोग लरज़ जाते थे। चेहरों का रंग एक हो जाता था गिरया व जारी का यह आलम होता था कि अहले महफिल पर बेहोशी तारी हो जाती थी।

जब आप रहमते इलाही की तशरीह व तौजीह और उसके मतालिब बयान फरमाने लगते तो लोगों के दिल गुन्चों की तरह खिल जाते थे अकसर हाज़रीन तो बादाए जौक व शौक से इस तरह मस्त व बेखुद हो जाते थे कि बाद ख़त्मे महफिल उनको होश आता था और बाज़ तो महफिल में ही जां बहक तस्लीम हो जाते-”

हज़रत मोहद्दिस दहलवी इसी सिलसिला में रकम तराज़ हैं:- हज़रत की महफिले वाज़ में चार सौ अफ़राद कलम दावत ले कर बैठते थे जो कुछ आप से सुनते उसको लिखते जाते।

हज़रत के मवाइज़ दिलों पर बिजली का असर करते थे। शैख उमर कीसानी कहते हैं कि कोई मजलिस ऐसी नहीं होती थी जिस में यहूद व नसारा इस्लाम कबूल न करते हों। और आम्मतुन्नास रहज़नी, खूंरेजी, बदकारी और जराइम से तौबा न करते हों। फासिदुल एतकाद अपने गलत अकाइद से आप की महफिल में तौबा करते थे। मोअर्रिखीन का इस पर इत्तेफाक है कि बगदाद की आबादी के एक बड़े हिस्से ने आप के दस्ते हक परस्त पर इस्लाम कबूल किया।

मोहक्किके वक़्त शैख मौफिकुद्दीन इब्ने किदामा साहबे किताब मुगनी के इस कौल से हज़रत मोहक्किक मोहद्दिस देहलवी के इरशाद की ताईद होती है हज़रत मोफिकुद्दीन फरमाते हैं।

मैंने किसी शख़्स को आप से बढ़कर दीन के बाइस ताज़ीम पाते नहीं देखा, बादशाह वोज़रा और उमरा आप की मजालिस में नियाज मन्दाना तरीके पर हाज़िर होते थे और अदब से बैठ जाते थे उलमा फुक़्हा का तो कुछ शुमार ही नहीं था। एक एक दफा में चार चार सौ दवातें शुमार की गई हैं जो आप के इरशादात कलम बन्द करने के लिए मौजूद होती थीं।

आप पर बगदाद की मुआशरती समाजी और दीनी ज़िन्दगी की बिगड़ती हुई हालत पोशीदा नहीं थी, जुल्म व सितम, जब व इस्तिब्दाद, फ़्वाहिश व तने आसानी ऐश व तुरब में डूबी हुई जिन्दगी को हलाकत के भंवर से बाहर निकाल कर लाना ही आप का मक़्सूदे अस्ली था और इसी लिए आपने बगदाद को अपनी दावत का मरकज़ बनाया था,किसी गैर को भी हकी़र न जानिए।

आप के मवाइज़ का असली मोजिब यही था कि बन्दगाने खुदा की इस्लाह की जाए चुनांचे आप का हर वक़्त उन बरगश्ता हाल नुफूस की इस्लाह में मशगूल और मसरुफ रहते। बड़े बड़े लोगों को उनकी बुराईयों पर बेधड़क टोकते और इस्लाह की तरफ मुतवज्जेह फरमाते यानी आप सलातीने वक़्त (खुलाफाए बगदाद) वोज़रा, उमराए सलतनत, अकाबेरीने मिल्लत, आमिल व काज़ी, वाएज़ व सूफी हर एक को बे धड़क टोकते और उसकी बुराईयों से आगाह फरमाते और कभी कभी किसी की इन्फ़ादियत. वजाहत और सतवत व शौकत से मरऊब नहीं होते थे।

मैं इस सिलसिला में आप के खुत्वात व मवाइज़ से चन्द इक़्तसाबात पेश कर रहा हूं ताकि आप को हज़रत की खिताबत और इस्लाह की शान का अंदाज़ा हो सके।

अल्लाह से एक दिली दुआ…

ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।

प्यारे भाइयों और बहनों :-

अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।

क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
खुदा हाफिज़…..

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