04/06/2025
बीवी के हुक़ूक़ जो मर्द के जिम्मे है। 20250601 170000 0000

बीवी के हुक़ूक़ जो मर्द के जिम्मे है।Biwi ke huqook jo mard ke jimme hai.

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Biwi ke huqook jo mard ke jimme hai.
Biwi ke huqook jo mard ke jimme hai.

 

अय्यामे जाहिलीयत में औरत की हालत :-

निसाइयात यानी औरत की तारीख बड़ी दर्दनाक और तकलीफदह है, ये इन्सानियत की पेशानी पर बदनुमा दाग है, अफ़सोस ! जिसके आगोश में इन्सान ने परवरिश पाई, उसी आगोश यानी गोद को ज़ख़्मी किया। जिसने बुलन्दियों पर पहुँचाया, उसी को पस्तियों में डाला सरज़मीने अरब में अय्यामे जाहिलीयत यानी जाहिलीयत के दिनों में मुआशरे यानी समाज की नज़र में ख़वातीन की जो क़द्र व कीमत थी उसका कुछ अन्दाज़ा एक अरब शायर के इन ख़्यालात से होता है।

(1) लड़कियों को दफ़्न करना ही सबसे बड़ी फ़ज़ीलत है।’
(2) मौत औरत के हक़ में अज़ीज़ तरीन मेहमान है।

कुरआने करीम के मुतालआ यानी पढ़ने से मालूम होता है कि उस ज़माने में लड़कियों की विलादत मर्द के लिये अज़ाबे जाँ थी-जब कोई मर्द ये ख़बर सुनता तो उसका चेहरा मारे गुस्से के सियाह हो जाता और वो उसी ग़म में कुढ़ता-लोग लड़कियों को ज़िन्दा दफ़्न कर दिया करते थे जिसके लिये कुरआने करीम में फरमाया गया कि क़्यामत के दिन दफ़्न होने वाली लड़की से पूछा जाएगा बता तुझे किस जुर्म की पादाश में कत्ल किया गया?

यानी ऐसे सफ़्फ़ाक बाप को क़यामत के दिन छोड़ा नहीं जाएगा। एक सहाबी ने अय्यामे जाहिलीयत में अपनी बेटी को ज़िन्दा दफ़्न करने का दर्दनाक वाकिया सुनाया तो वो खुद भी रोए और सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम भी रोते रहे,

हिन्दुस्तान का हाल अरब से भी बद तर था, यहाँ मरने वाले शौहरों के साथ उनकी ज़िन्दा बीवियाँ जलाई जाती थीं, इस रस्म को “सती” के नाम से पुकारा जाता था। फ्रांस के मशहूर मुअर्रिख (इतिहासकार / Historian) डॉक्टर गसतावली बान ने लिखा है: ये रस्म हिन्दुस्तान में आम हो चली थी क्योंकि यूनानी मुअर्रिखों ने इसका जिक्र किया है”

5-इब्ने बतूता (वफात 779 हिजरी / 1378 ई०) जब हिन्दुस्तान आया तो उसने ये वहशतनाक मन्ज़र खुद देखे जिसका अपने सफरनामे में ज़िक्र किया है। ऐसा ही एक मन्ज़र देखते देखते वो बेहोश होकर घोड़े से ज़मीन पर गिरने लगा तो लोगों ने सँभाला।’ 1839 ई० में लॉर्ड बैन्टिक ने सती होने या सती में मदद देने को जुर्म करार दिया। फिर भी जल्द ही हिन्दुस्तान में एक ऐसा वाकिया पेश आया जिसमें शौहर की लाश के साथ उसकी ज़िन्दा बेवा को फेंक दिया गया।

ये ख़बर सारी दुनिया में हैरत से सुनी गई-यूरोप भी इस मामले में किसी से पीछे नहीं रहा, वहाँ 1494 ई0 और 1521-1522 ई० में जादूगरी के इल्ज़ाम में सैकड़ों औरतों और बच्चों को ज़बह कर दिया गया। डॉक्टर स्प्रिंगर ईसाई के मुताबिक दुनिया में 90 हज़ार औरतों को मुखतलिफ ना-माकूल इल्ज़ामात में ज़िन्दा जला दिया गया।

कुछ दिनों पहले बोस्निया में मुसलमान औरतों के साथ नसारा ने जो सफ़्फ़ाकाना सुलूक किया, सुन सुन कर इन्सानियत की रूह काँप उठी। एक मुल्क जिसका शुमार तरक्की याफ्ता बर्रे आज़म यानी महाद्वीप में किया जाता है वहाँ औरतों के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, शायद तारीख (इतिहास /History) के किसी दौर में ऐसा सुलूक नहीं किया गया होगा।

हर पाँच मिनट के बाद एक औरत की इज़्ज़त का दामन तार तार किया जाता है। यानी चौबीस घण्टे में इस्मत-दरी (बलात्कार / Rape) के 288 हादसात रोनुमा होते हैं-आप खुद अपने ज़मीर यानी दिल से पूछें ये जन्नत है या जहन्नम? मुखतलिफ जराएम की तादाद इससे भी ज़्यादा है। चौबीस घण्टे में 1800 जुर्म किये जाते हैं।’ हम अल्लाह के लिये हैं और उसी की तरफ लौटने वाले हैं!

इस्लाम की आमद और औरत का मक़ाम :-

इस्लाम ने औरत पर बड़ा करम फ़रमाया और उसको पस्तियों से बुलन्दियों पर पहुँचाया और ऐसा रऊफ व रहीम रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेजा जिसने दुनिया की चीज़ों में खुशबू और औरत को पसन्द फरमाया- रूसी फलसफी टाल्सटाय (वफात 1910 ई०) ने हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की सीरत पर इज़हारे ख़्याल करते हुए ये हदीस पेश की हैः “दुनिया की चीजें सिर्फ माल व मताअ (दौलत) हैं और दुनिया की अच्छी मताअ नेक औरत है।

आपने औरतों पर जो करम फ़रमाया वो इन्सानियत की तारीख में सुनहरी हुरूफ से लिखा जाएगा। चन्द इरशादात और वाकियात मुलाहज़ा फरमाए।मलिका जुबैदा खातून का वाक़िआ।

(1) एक सहाबी ने अर्ज़ कियाः “या रसूलल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम! सबसे ज़्यादा मुझ पर किसका हक़ है?” हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः “तेरी माँ का” ये सवाल तीन मरतबा किया गया, आप सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने यही फ़रमाया, “तेरी माँ का”। फिर चौथी मरतबा अर्ज़ कियाः “सबसे ज़्यादा मुझ पर किसका हक़ है?” तो आप सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः “तेरे बाप का’ आपने मुलाहज़ा फ़रमाया, इस्लाम की नज़र में “माँ” की कितनी कद्रो मंज़िलत है।

(2) हज़रत अली कर्रमल्लाहु तआला वज-हहुल करीम की वालिदा हज़रत फातिमा बिन्ते असद (वफात 11 हिजरी/632 ई0) का जब इन्तिकाल हुआ, हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने अपनी चादर शरीफ उनके कफ़न के लिये अता फरमाई और जब लहद खोदी गई तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने लहद में उतर कर अपने दस्ते मुबारक से बगली कब्र खोदी और मिट्टी बाहर निकाली और फिर खुद लेट कर देखा अल्लाहु अकबर ! इस क़ब्र शरीफ की मंजिलत का क्या कहना ! अफ़सोस सैकड़ो बार अफ़सोस जन्नतुल बकीअ शरीफ में इस क़ब्र शरीफ के चारो तरफ दीवारें चुना दी गई हैं, शायद इस लिये कि आशिकाने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसकी ज़ियारत से महरूम रहें।

(3) हज़रत उम्मे सलमा रजियल्लाहु तआला अन्हा (वफात 63 हिजरी/682 ई0) बेवा हो गईं, आपके साथ यतीम बच्चे भी थे। परेशानी का आलम, कोई मददगार नहीं-सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने अपने लिये पैग़ाम भेजा हज़रत उम्मे सलमा रजियल्लाहु अन्हा चूँकि अयालदार यानी बाल बच्चों वाली थीं, ख़्याल आया कि शायद सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम बच्चों का बोझ महसूस करें, आपने उज़्र पेश करते हुए फरमायाः “अयालदार हूँ, यतीम बच्चे मेरे साथ हैं” सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने जो जवाब इनायत फ़रमाया वो उन मर्दों के लिये इबरत व नसीहत है जो अयालदार बेवा औरतों का बोझ उठाने से पहलू तही करते यानी बचते हैं- आपने फरमायाः “तुम्हारी अयाल, अल्लाह और उसके रसूल की अयाल है” अल्लाहु अकबर !

(4) आपकी रज़ाई (दूध शरीक) बहन शीमा बिन्ते हारिस हालते कुफ्र में एक जिहाद में कैद होकर आईं और सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के सामने पेश की गईं तो आप पहचान गए और अपनी चादर शरीफ पर बिठाया, फरमायाः “अगर तुम मेरे पास रहना चाहती हो तो मेरे पास रहो, अपने कबीले में जाना चाहती हो तो जा सकती हो” शीमा ने अर्ज़ किया कि “अपने कबीले में जाना चाहती हूँ”-आप सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने बहुत से ऊँट और बकरियाँ देकर एज़ाज़ो एकराम (इज़्ज़त) से रवाना किया।

इन वाकियात से अन्दाज़ा होता है कि हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ख़वातीन पर कितने मेहरबान थे?औरतों पर आपका यही करम था कि जब पहली मरतबा मदीना मुनव्वरा में दाखिल हुए तो ख़वातीन और बच्चियाँ इस्तिकबाल के लिये बाहर आ गईं और खुशी के तराने गाने लगीं मदीना मुनव्वरा में हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुस्तकिल क्याम से उनको कितनी खुशी थी इसका अन्दाज़ा इस शेर से लगाया जा सकता है।

तर्जमा :-: हम बनू नज्जार की बेटियाँ हैं किस कदर खुश नसीब हैं कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे पड़ोसी हैं। 16)

जब सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुनिया से पर्दा फ़रमा रहे थे तो ख़िदमते अक्दस में ख़वातीन ही मौजूद थीं, ग़मो अलम (तकलीफ) का आलम था, हज़रत सफिया रजियल्लाहु तआला अन्हा (वफात 50 हिजरी/670 ई०) फरमा रही थींः “ऐ अल्लाह आपकी सारी तकलीफें मुझको अता फरमा दे”मुहब्बत भरी इस दुआ को सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सुन रहे थे- फ़रमायाः “सफिया ने सच कहा” आप सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने वसीयत फरमाई कि जब जसदे अतहर (पाक जिस्म मुबारक) पर मर्द सलातो सलाम पढ़ चुकें तो औरतों से कहना कि वो कतार-दर-कतार आकर सलातो सलाम पेश करें” सुब्हान अल्लाह ! कैसा करम फ़रमाया कि दुनिया से पर्दा फरमाते वक़्त भी याद रखा। ये तमाम हकीकतें ख़वातीन के लिये बड़े फख्र का बाइस हैं, वो जितना फख्र करें कम है। किसी दूसरी मज़हबी किताब में ख़वातीन को इतनी अहमियत नहीं दी गई जितनी अहमियत कुरआने हकीम ने दी है।

सूर-ए-मरयम, हज़रत मरयम अलैहिस्सलाम के नाम से मअनून की गई–सूर-ए-बका, सूर-ए-तहरीम, सूर-ए-नूर वगैरा में ख़वातीन के लिये बहुत से अहकाम व मसाइल हैं– फिर अहम ख़वातीन का कुरआने करीम में ज़िक्र किया गया है मसलन हज़रते हव्वा अलैहिस्सलाम, हज़रत आइशा रजियल्लाहु अन्हा, हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम और हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम की साहबज़ादियाँ, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की वालिदा और हमशीरा (बहन), हज़रत यूसुफ अलैहिस्सलाम की ज़ौज-ए-मुकर्रमा (मोहतरम बीवी), हज़रत मरयम अलैहस्सलाम, मलिक-ए-फिरऔन, मलिक-ए-सबा और सहाबियात रजियल्लाहु तआला अन्हुन्ना।

अल्लाह तआला ने औरत और मर्द के इज़्दिवाजी तअल्लुक को इतना मुकद्दस बनाया कि उसको अपनी निशानियों में से एक निशानी करार दिया और इसका मक़सद ये बयान फरमाया कि इन्सान सुकून व चैन हासिल करे और इस तअल्लुक को मुहब्बत व मेहरबानी का तअल्लुक करार दिया जिसमें हवस-परस्ती का शुब्हा तक नहीं-इस्लाम का ये तसव्वुर कहीं नहीं मिलता जबकि जर्मन फ़्लास्फ़न नटशे ने तो यहाँ तक लिखा हैः “औरत का मक़सदे हयात सिर्फ ये है कि वो मर्द की कैद में रहे और उसकी ख़िदमत करती रहे,

रूस का मशहूर फलसफी काउन्ट लिव टाल्सटॉय (वफात 1910 ई0) भी ख़वातीन के मुतअल्लिक अच्छी राय न रखता था—उसने इस्लाम की तर्जमानी करते हुए अपनी राय का इस तरह इज़हार किया हैः “मर्द का फर्ज़ है कि औरत से अच्छा सुलूक करे और उसकी बाग ढीली न छोड़े बल्कि उसे घर में बन्द रखे क्योंकि घर औरत की आज़ादी के लिये काफी है।” निकाह जैसे मुक़द्दस रिश्ते के बारे में भी टाल्सटाय की राय अच्छी नहीं। शायद इस लिये कि इस तजर्बे में वो नाकाम व नामुराद रहा, वो लिखता हैः हमारे ज़माने में निकाह महज़ एक धोखा और एक फरेब हो गया है हम इसको महज़ नफ़्सानी ख़्वाहिश पूरा होने का वसीला जानते हैं।

अल्लाह तआला ने ख़वातीन को बड़ी रिआयतें दी हैं और रंज व मुसीबत में उनका पास व लिहाज़ रखा है—मसलन मुतल्लका (तलाक दी हुई) औरत के लिये ये हुक्म है कि इद्दत पूरी होने तक उसका खाविन्द उसको राहत व आराम से अपने घर में रखे, उस पर तंगी न करे, अगर वो हामिला (पेट से) है तो फिर हमल की मुद्दत पूरी होने तक उसका सारा ख़र्चा बर्दाश्त करे और उसकी आसाइश व आराम का पूरा पूरा ख़्याल रखे।

बच्चे की विलादत के बाद अगर मुतल्लका बीवी दो साल उसको दूध पिलाती है तो दो साल की उजरत भी अदा करे शायद ये बातें अजीब लगें मगर ये सब कुछ कुरआने करीम में है। हम ख़वातीन को बताते नहीं, अपने हुकूक खूब याद रखते हैं। ख़वातीन को अहकामे शरीअत की पैरवी करते हुए कस्बे मुआश (कमाने) की इजाज़त है, कुरआने करीम में इरशाद हुआ कि मर्द की कमाई में से मर्द का हिस्सा है और औरत की कमाई में से औरत का हिस्सा है- हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम की ज़ौज-ए-मुतहहरा हज़रत ज़ैनब बिन्ते हजश रजियल्लाहु तआला अन्हा (वफात 20 हिजरी / 640 ई0) अपने हाथ से चमड़े को दबाग़त देतीं, फ़रोख़्त करके जो रकम आती ग़रीबों और मिसकीनों में तकसीम कर देतीं।

अल्लाह तआला ने घरों में रहने वाली शरीफ़ ख़वातीन की इज़्ज़ते नफ़्स की हिफाज़त के लिये मर्दों को बगैर इजाज़त लिये घर के अन्दर दाखिल होने से मना फरमाया। अगर किसी खातून से बात करनी है तो अदब ये सिखाया कि पर्दे के पीछे से बात की जाए। अगर कोई दावत पर बुलाए और घर में ख़वातीन भी मौजूद हों तो खाने के बाद ख़्वाह-म-ख़्वाह बातों में मसरूफ न हों बल्कि खा पीकर चले आएँ।

हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि व सल्लम के तुफैल ये सारे आदाब हमको मिल गए, अब ये हमारी बद नसीबी है कि हम अमल नहीं करते। अल्लाह तआला ने हमको पैदा किया, उससे ज़्यादा कौन हमारे हालात से वाकिफ होगा? हमारी भलाई और बुराई का उससे ज़्यादा किसको इल्म होगा?

हमको जिन बातों का हुक्म दिया गया है और जिनसे रोका गया, वो सिर्फ और सिर्फ हमारी भलाई के लिये- अल्लाह तआला बेनियाज़ है, ज़रा सोचें तो सही ! बन्दों से उसको क्या गरज़ होगी? वो हमारे फाइदे के लिये हमको हुक्म देता है- पर्दे के बारे में ख़वातीन को जो हुक्म दिया गया वो उन्हीं के फाइदे के लिये अगर वो सोचें और गौरो फिक्र करें-सूर-ए-नूर और सूर-ए-अहजाब में ख़वातीन के पर्दे से मुतअल्लिक जिन आदाब का जिक्र किया गया वो हमारी तवज्जो के मुस्तहिक हैं, तवज्जो फरमाएँ ।

(1) अपने अपने घरों में रहें, दौरे जाहिलीयत की तरह बेपर्दा न फिरें।

(2) दुपट्टे अपने गिरेबानों पर डाली रहें और गैर मर्दों को अपना सिंगार न दिखाएँ।

(3) हाँ इन रिश्तेदारों पर छुपा सिंगार ज़ाहिर हो जाए तो हरज नहीं मसलन खाविन्द, बाप (दादा परदादा), ससुर, बेटे, भाँजे, भतीजे, बहुत ही बूढ़े और नाबालिग नौकर और नौ-उम्र लड़के।

(4) ख़वातीन ज़रूरत के वक़्त बाहर निकलें तो चादर का एक हिस्सा अपने मुँह पर डाल लें ताकि पहचानी जाएँ कि शरीफ हैं और शरारत करने वाले छेड़ छाड़ न करें।”

(5) मुसलमान मर्दों को हुक्म दिया जाए कि वो अपनी निगाहें नीची रखें।

(6) मुसलमान औरतों को भी हुक्म दिया जाए कि वो अपनी निगाहें नीची रखें।

आपने मुलाहज़ा फरमाया कि कुरआने हकीम हम से किस शर्मो हया और गैरतो हमीयत का तकाज़ा करता है। रूसी फलसफी टाल्सटॉय ने भी सज-बन कर, खुशबू लगाकर औरत के बाहर निकलने से मुतअल्लिक ये हदीस पेश की है जिसमें हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इरशाद फरमाते हैं: “जो औरत खुशबू लगाकर घर से निकली फिर इस गरज से लोगों के पास से गुज़री कि वो उसकी खुशबू सूँधें, वो ज़ानिया है और जिन्होंने उसे देखा उनमें से एक एक की आँख जानिया है।

मौजूदा सूरते हाल, दर्दमन्द दिल के लिये तशवीशनाक है, जिससे घर में रहने और पर्दा करने के लिये कहा गया था, वो बेपर्दा घर से बाहर है-और जिससे दरवाज़ा खुले रखने और ज़रूरतमन्दों की ज़रूरत पूरी करने के लिये कहा गया था, वो बन्द दरवाज़ों और सख़्त पर्दों में हैं- इस्लामी मुआशरे के हर हाकिम व अफसर को हिदायत की गई थी वो दरवाज़ा खुला रखे, पहरे न लगाए, मगर यहाँ तो रसाई (पहुँचना) भी बहुत मुश्किल है और कभी कभी नामुम्किन भी हो जाती है-ख़वातीन के आदाब मर्दों ने अपना लिये, ऐ काश! हम अक़्ले सलीम से काम लेते !

कुरआने हकीम में पर्दे के मुतअल्लिक जो कुछ हिदायात दी गईं हज़रत आइशा सिद्दीका रजियल्लाहु तआला अन्हा (वफात 58 हिजरी/677 ई०) ने उस पर अमल करके बेहतरीन नमूना पेश किया। अज़वाजे मुतहहरात में इल्मो दानिश (समझ) में कोई आपकी तरह न था।

तारीख व हदीस से हमें इन वाकियात का इल्म होता है :-

(1) एक मर्तबा हज़रत हफ़सा बिन्ते अब्दुर्रहमान रजियल्लाहु तआला अन्हा बारीक दुपट्टा ओढ़े हज़रत आइशा सिद्दीका रजियल्लाहु अन्हा की खिदमत में हाज़िर हुईं। आपने उनका दुपट्टा चाक कर दिया और फरमाया “अल्लाह तआला ने सूर-ए-नूर में क्या फरमाया है?” इस तम्बीह के बाद दबीज़ (मोटे) कपड़े की चादर मँगवा कर हज़रत हफ़सा रजियल्लाहु अन्हा को इनायत फरमाई।

(2) एक मर्तबा किसी के यहाँ आपका जाना हुआ, साहिबे खाना (घर वाले) की दो जवान लड़कियाँ बगैर चादर, बारीक दुपट्टा ओढ़े नमाज़ पढ़ रही थीं, आपने हिदायत फरमाई कि आइन्दा दबीज़ कपड़े की चादर ओढ़ कर नमाज़ पढ़ी जाए।

(3) एक मर्तबा इब्ने इसहाक नाबीना हज़रत आइशा रजियल्लाहु अन्हा की खिदमत में हाज़िर हुए, आप पर्दे में हो गईं। इब्ने इसहाक ने अर्ज़ किया कि मैं तो नाबीना हूँ, आपने पर्दा क्यों फरमाया?, फ़रमाई: मैं तो बीना हूँ-देख रही हूँ

(4) हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक ज़माने में ख़वातीन मस्जिदे नबवी शरीफ में हाज़िर होतीं और ईदैन के लिये भी हाज़िर होतीं मगर नामुसाइद (बिगड़े) हालात की वजह से अहदे फारूकी में ख़वातीन पर पाबन्दी लगा दी गई और उन्होंने मस्जिदे नबवी शरीफ में आना बन्द कर दिया। हज़रत आइशा सिद्दीका रजियल्लाहु तआला अन्हा ने हज़रत उमर रजियल्लाहु अन्हु (वफात 23 हिजरी/663 ई0-664 ई०) के इस अमल की ताईद फरमाते हुए इरशाद फरमायाः “अगर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को मालूम होता कि ख़वातीन की हालत ये हो गई है तो आप उनको मस्जिद में आने से उस तरह रोकते जिस तरह बनी इसराईल की औरतों को रोक दिया गया था।

ऊपर दर्ज वाकियात से मालूम हुआ कि हज़रत आइशा सिद्दीका रजियल्लाहु तआला अन्हा ख़वातीन से क्या तवक़्क़ो रखती हैं और क्या चाहती हैं–इस्लाम जहाँ जहाँ फैला एशिया में, अफ्रीका में, यूरोप में साथ साथ पर्दा भी फैलता चला गया।

ये हमेशा इस्लामी निशानियों में एक अज़ीम निशानी शुमार किया गया-इन्तिहाई उरूज के ज़माने में जबकि इस्लामी सल्तनत तीन बररें आज़मों (महाद्वीपों) पर फैली हुई थी, पर्दा मुस्लिम और गैर मुस्लिम ख़वातीन के दरमियान एक इम्तियाज़ी निशान बना रहा मुस्लिम हुकूमतों में भी ये इम्तियाज़ काएम रहा।

बल्कि गैर 1914 ई0 से ब्लरूस में मुस्लिम ख़वातीन पर्दे में रहतीं, कुरआने करीम हिफ़्ज़ करतीं, वहाँ कुरआन हिफ़्ज़ करने का औरतों और मर्दों में आम रिवाज था। (अखबारूल मुअय्यिद, मिस्र, 15 अगस्त 1902 ई0) – रूस की मुस्लिम ख़वातीन मदारिस भी काएम करतीं, एक रूसी खातून सफिया खानम ने अपने ख़र्च से एक अज़ीमुश्शान मदरसा काएम किया था–अल-ग़रज़ गुज़रे ज़माने में इस्लामी मुआशरे में जो कुछ तरक्की हुई, पर्दे में रह कर ही हुई।

हद तो ये है कि ख़वातीन जिहाद में शरीक होतीं, जख्मियों की मरहम पट्टी करतीं, कभी खुद जिहाद में हिस्सा लेतीं, ये सब कुछ हया के साथ, पर्दे में रह कर ही किया जाता। दौरे जदीद (नए दौर) में जहाँ इस्लामी इन्किलाब आया या इस्लाम के नाम पर इन्किलाब आया वहाँ पहली बात ये देखी गई कि बेपर्दा औरतें, पर्दादार हो गईं और उनकी हैबत दुश्मनाने इस्लाम के दिलों में ऐसी बैठी कि वो ख़ौफ़ज़दा हो गए जदीद मुआशरे (नए समाज) की बेपर्दगी ने इस्लामी मुआशरे को कुछ न दिया और न तारीख़ में किसी बाब का इजाफा किया-ये दर्दमन्द ख़वातीन के लिये सोचने की बात है।शुक्रे इलाही में पत्थर भी रो पड़ा।

अगर बेपर्दगी तरक्की की ज़ामिन होती तो आज सारे आलम में हम इस तरह रूसवा न होते–मशहूर मुअर्रिख आर्नल्ड टोएम्बी ने एक जगह लिखा है कि इन्सानी मुआशरों की तबाही में औरत की आज़ाद चलन और बेपर्दगी को बड़ा दख़ल है। मुअर्रिख मौसूफ ने आलमी तारीख को गहरी नज़र से पढ़ने के बाद इस राय का इज़हार किया।

इस लिये इसको किसी तअस्सुब या तंगदिली पर महमूल नहीं किया जाना चाहिये बल्कि इस तारीखी हकीकत पर ठण्डे दिल से गौरो फिक्र करना चाहिये-हकीकत ये है कि इस्लाम ने मुआशरे की बुनियाद पाकीज़गी पर रखी है। हमागीर पाकीज़गी ज़िन्दगी के हर शोबे की पाकीज़गी, मग़रिबी साज़िशीयों ने इस्लाम की हर माकूल बात को नामाकूल बना कर दिखाया, ऐसा प्रोपैगन्डा किया कि अक़्लें माऊफ (अपाहिज) हो गईं और आँखें पट हो गईं–इस्लाम ने ख़वातीन पर बेशुमार एहसानात किये मगर एक पर्दे की माकूल हिदायत (जो ख़वातीन ही की इस्मत व इफ़्फ़त (इज़्ज़त और पाक-दामनी) और हुस्नो जमाल की हिफाज़त की ज़मानतदार है।

बाज़ खवातीन को अच्छी नहीं मालूम होती, दुश्मनाने इस्लाम ने इसकी अच्छाइयों को छुपाया और नाम निहाद बुराइयों को उछाला-इस तरह ख़वातीन के ज़हनों को परागन्दा करके इस्लाम की सच्चाई से उनको दूर कर दिया–ज़रा गौर करें, ख़वातीन की बेपर्दगी ने जिस्मानी आराइश व ज़ेबाइश का रास्ता खोला, फिर उसने बेहयाई की सूरत इख़्तियार की और बेहयाई ने उरयानी (नंगेपन) और बदकिरदारी का दरवाज़ा खोल दिया— नौबत यहाँ तक पहुँची कि अब यूरोप और अमरीका इन्सानों की सरज़मीन नज़र नहीं आते, हैवानों और दरिन्दों के जंगल मालूम होते हैं-इस बेहयाई के जो नतीजे सामने आए, उनमें से चन्द एक ये हैं:

(1) ख़वातीन का गैर महफूज होना।

(2) ख़वातीन के अगवा और ज़िना की वारदातें आम होना।

(3) ख़वातीन में जज़्ब-ए-उमूमत (ममता) का मर जाना।

(4) बदनिगाही और परागन्दा ख़्याली आम होना।

(5) मर्दों का जिन्सी अमराज़ (गुप्त रोग) में मुब्तला
होना।

(6) औरत के तकद्दुस का पामाल होना।

अभी कुछ रोज़ की बात है पर्दादार खातून की इज़्ज़त की जाती थी और अब भी की जाती है- बसों में उसके लिये सीट खाली कर दी जाती थी लेकिन बेपर्दा खातून की तकरीम (इज़्ज़त करने) के लिये लोग तैयार नहीं। वो बसों में जिस हाल में सफर करे किसी को कोई सरोकार नहीं। दौरे जदीद में औरत की बेपर्दगी ने इस हद तक रूसवा किया है कि वो अख़बारों, रिसालों और इश्तिहारों की ज़ीनत बन कर नफा कमाने का एक वसीला बन कर रह गई है-जहाँ जहाँ ख़वातीन को जगह दी जाती है एहतेराम की वजह से नहीं,

तिजारत चमकाने और नफा उठाने के लिये-औरत पर इस्लाम की नज़र मुशफिकाना है और नए समाज की नज़र सिर्फ ताजिराना है- सच्ची बात ये है कि हमारी इन्फ़िादी और इज्तिमाई अज़मतो शौकत का दारो मदार सिर्फ और सिर्फ हुजूरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैरवी में है–आलमी सतह पर हमारी रूसवाई की बड़ी वजह दिलों का इश्क़े मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से खाली होना और अमल का सुन्नते नबवी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से खाली होना।

हज़रत उमर रदियल्लाहु तआला अन्हु ने सच फ़रमायाः “हम वो कौम हैं जिसको अल्लाह ने इस्लाम की बदौलत इज़्ज़त दी।’

ऐ अल्लाह! तू हमें सिर्फ सुनने और कहने वालों में से नहीं, अमल करने वालों में शामिल कर, हमें नेक बना, सिरातुल मुस्तक़ीम पर चलने की तौफीक़ अता फरमा, हम सबको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से सच्ची मोहब्बत और पूरी इताअत नसीब फरमा। हमारा खात्मा ईमान पर हो। जब तक हमें ज़िंदा रखें, इस्लाम और ईमान पर ज़िंदा रखें, आमीन या रब्बल आलमीन।

प्यारे भाइयों और बहनों :-

अगर ये बयान आपके दिल को छू गए हों, तो इसे अपने दोस्तों और जानने वालों तक ज़रूर पहुंचाएं। शायद इसी वजह से किसी की ज़िन्दगी बदल जाए, और आपके लिए सदक़ा-ए-जारिया बन जाए।

क्या पता अल्लाह तआला को आपकी यही अदा पसंद आ जाए और वो हमें जन्नत में दाखिल कर दे।
इल्म को सीखना और फैलाना, दोनों अल्लाह को बहुत पसंद हैं। चलो मिलकर इस नेक काम में हिस्सा लें।
अल्लाह तआला हम सबको तौफीक़ दे – आमीन।
खुदा हाफिज़…..

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